Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 291
________________ समस्त देव समूहों से सहित भगवान नेमिनाथ पुन: उपदेश करते हुए उत्तरापथ से सुराष्ट्र देश की ओर अर्थात् उत्तर से दक्षिण की ओर आये। जब नेमिनाथ प्रभु के निर्वाण का समय निकट आया तो वे मनुष्यों एवं सुरअसुरों से सेवित होते हुए अपने आप गिरनार पर्वत पर आरूढ़ हो गये। वहाँ तत्काल समोशरण रचा गया, प्रभु का अन्तिम उपदेश भी प्रथम उपदेश की भांति ही खूब विस्तार से हुआ। कृतकृत्य जिनेन्द्र भगवान का उपदेश स्वभाव से ही होता है, किसी की प्रेरणा से नहीं। तदनन्तर योग-निरोध करनेवाले भगवान नेमिनाथ अघातिया कर्मों का अन्त कर सैकड़ों मुनियों के साथ निर्वाणधाम को प्राप्त हो गये। चारों निकायों के देवदेवेन्द्रों ने तीर्थंकर नेमिनाथ का निर्वाण कल्याणक मनाया। तीर्थंकर नेमिनाथ के पिता समुद्रविजय एवं उनके नौ भाई, देवकी के युगलिया छह पुत्र तथा शंब और प्रद्युम्न आदि अन्य मुनिराज भी गिरनार पर्वत से मुक्त हुए। धीर-वीर पाँचों पाण्डव मुनि तो हो ही गये थे, भगवान नेमिनाथ का मोक्ष हुआ जान शत्रुजय पर्वत पर वे भी प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। उस समय वहाँ दुर्योधन के वंश का क्षुयवरोधन नाम का व्यक्ति रहता था । ज्यों ही उसने पाँचों पाण्डवों को देखा, त्यों ही पूर्व वैर वश उसने पाण्डवों पर घोर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया । लोहे के कड़े-कुण्डल अग्नि में गर्म कर पहना दिये । पाँचों पाण्डव धीर-वीर थे। वस्तुस्वरूप का और कर्मोदय के निमित्त-नैमित्तिक ज्ञान के ज्ञाता थे। अत: अन्तर्मुखी उग्र पुरुषार्थ से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने तो अन्तर्मुहूर्त में सर्व कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त की तथा नकुल और सहदेव अपनी होनहार के अनुसार सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए। मनुष्यों में श्रेष्ठ नारद भी दीक्षा ले तप के बल से संसार का क्षय कर अविनाशी मुक्तिपद को प्राप्त हो गये। ॥ २९ TE FEE ल्या क

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