Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 280
________________ (२७६) hotos 5 ह रि वं श क करता हूँ, तुम निराश मत होओ। मैं जब लेकर आता हूँ, तबतक तुम जिनेन्द्र के स्मरणरूपी जल से प्या | को दूर करो। भाई ! यह पानी तो थोड़े समय के लिए ही प्यास दूर करता है; पर जिनेन्द्र का स्मरण रूपी जल तो तृष्णा के जल को जड़ मूल से नष्ट कर देता है। ष्ण र ब बलदेव पानी लेने गये और कृष्ण वृक्ष की छाया में चादर ओढ़कर विश्राम करने लगे। शिकारप्रेमी जरतकुमार अकेला उस वन में घूम रहा था। भाग्य की बात देखो, श्रीकृष्ण के स्नेह से भरा जो उनके प्राणों | की रक्षा की भावना छोड़ द्वारिका से वन में जाकर उनसे दूर भाग रहा था ताकि वह तीर्थंकर नेमिनाथ की | घोषणा के अनुसार अपने भाई की मौत का कारण न बने। उसी जरतकुमार का तीर भ्रमवश उनके मौत औ का कारण बन गया। उससमय “यही तो विधि की विडम्बना है, जिसे अज्ञानी जीव समझ नहीं पाते और अपने कर्तृत्व के अहंकार से संसारचक्र में फँसे रहते हैं । श्रीकृष्ण ने कहा - भाई ! शोक मत करो 'होनहार अलंघनीय है और करनी का फल तो भोगना ही पड़ता है। कभी किसी को हमने सताया होगा, चलो ठीक है, कर्ज चुक गया। मरना तो था ही, अब ऐसी भूल की पुनरावृत्ति न हो यह भावना भा लें। देखो, जो श्रीकृष्ण और बलदेव, जीवन भर तो क्या आज भी अपने सत्कर्मों से, देश और समाज की सेवा से, दीनदुःखियों की पीड़ा को समझने और उसे दूर करने से भगवान बनकर पुज रहे हैं। वैभव में अर्द्धचक्री, अपार शक्तिसम्पन्न, महाभारत में अन्याय के विरुद्ध सत्य का साथ देकर विजय दिखानेवाले थे; उनके जन्म और दुः मृत्यु की कहानी हमें स्पष्ट संदेश दे रही है कि - ख करम फल भुगतहिं जाय टरै । पार्श्वनाथ तीर्थंकर ऊपर कमठ उपसर्ग करे । एक वर्ष तक आदि तीर्थंकर बिन आहार रहे । रामचन्द्र चौदह वर्षों तक वन-वन जाय फिरें । करम फल भुगतहिं जाय टरै ।। १ ।। श्री कृ दे व का

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