Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 270
________________ ये सभी कुलकर अपने-अपने नामों को सार्थक करनेवाले हुये । प्रसेनजित के पूर्व मरुदेव के समय तक || भोगभूमि थी, एक ही माता-पिता से युगल पुत्र-पुत्री ही पति-पत्नी के रूप में जन्म लेते थे; किन्तु मरुदेव से प्रसेनजित अकेले पुत्र ही उत्पन्न हुए। मरुदेव ने प्रसेनजित का विधिपूर्वक विवाह करके विवाहविधि का प्रारंभ किया। ये १४ कुलकर समचतुरस्र संस्थान (सुडौल शरीर) और वज्रवृषभनाराच संहनन (वज्र के समान सुदृढ़ शरीर) के धारक थे। इन्हें अपने-अपने पूर्वभव का स्मरणज्ञान था। इनकी मनु संज्ञा होने से ये मनु कहलाते थे। इसप्रकार नेमि जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ निर्मल मोक्षमार्ग तथा लोक का स्वरूप सुनकर बारह सभाओं के लोगों ने भगवान को नमन कर वन्दना की। श्रोताओं में से कितने ही लोगों ने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, कितने ही लोगों ने संयमासंयम एवं मुनिव्रत धारण कर आत्मकल्याण किया। शिला देवी, रोहणी, देवकी, रुक्मणी तथा अन्य नारियों ने श्राविकाओं का चारित्र धारण किया। यदुकुल और भोजकुल के श्रेष्ठ राजा तथा अनेक सुकुमारियाँ जिनमार्ग की ज्ञाता बनकर बारह व्रतों की धारक हो गईं। हम भी तीर्थकर भगवान् नेमिनाथ की दिव्यूध्वनि का सार समझकर मोक्षमार्ग में अग्रसर हो । यही इसके _अधिकाश व्यक्ति तो ऐसे होते हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों से घबड़ा कर, जीवन से निराश होकरें सवाध्याय की सार्थकता है। जल्दी ही भगवान को प्यारे हो जाना चाहते हैं, दुःखद वातावरण से छुटकारा पाने के लिए समय से पहले ही मर जाना चाहते हैं। सौभाग्य से यदि अनुकूलतायें मिल गईं तो आयु से भी अधिक जीने की निष्फल कामना करते-करते अति संक्लेश भाव से मर कर कुगति के पात्र बनते हैं। ऐसे लोग दोनों ही परिस्थितियों में जीवन भर जगत के जीवों के साथ और अपने-आपके साथ संघर्ष करते-करते ही मर जाते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाते, कषाय-चक्र से बाहर नहीं निकल पाते। - विदाई की बेला, पृष्ठ-५५, हिन्दी संस्करण १० वाँ

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