Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 266
________________ | यह जीव मनुष्यपर्याय उसमें उत्तम कुल और जिनवाणी सुनने, समझने की पात्रता पाकर भी अपना | बालपना अज्ञान में खो देता है, जवानी भोगों और खाने-कमाने में चली जाती है, बुढ़ापा अधमरे के समान बीतता है। बीच में नाना व्याधियों से दुःखी रहता है। भोगोपभोग सामग्री में सुख मानकर उनका संग्रह करने | में अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर दिन-रात सुख की खोज में लगा रहता है, फिर भी रंचमात्र सुख नहीं मिलता। जब भोगों और भोग सामग्री में सुख है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से? यह बालू (रत) | से तेल निकालने जैसा निरर्थक प्रयास है। ॥ तिर्यंच गति में पंचेन्द्रिय पशुओं के वध-बन्धन आदि के भयंकर दुःख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, बोझा ढोने, मार-पीट खाने और अत्यन्त निर्दयतापूर्वक बे-मौत मारे जाने के दुःख तो प्रत्यक्ष दिखाई देते ही हैं, इनके अलावा एकेन्द्रिय आदि जीवों के अव्यक्त दुःखों की तो हम मात्र कल्पना ही कर सकते हैं। अधिक क्या कहें.......... गणधरदेव ने आगे कहा - "हे भव्य ! तुम ऐसे दुःखों से बचना चाहते हो तो जिन पापों के फल में ये दुःख प्राप्त होते हैं, उन्हें जानकर उनसे बचो। एतदर्थ जिनवाणी का अध्ययन चिन्तन-मनन ही एक उपाय है।" देवगति में यद्यपि ऐसे शारीरिक दुःख नहीं हैं, देवगति हमें पुण्य के फल में प्राप्त होती है; किन्तु मानसिक दुःख तो वहाँ भी बहुत है। ऊपर के देवों और इन्द्रों का वैभव देख-देखकर नीचे के देव अपने अन्दर हीन भावना से दुःखी रहते हैं; क्योंकि वहाँ भी छोटे-बड़े का भेद तो है ही। चारों निकायों के देवों में भयंकर मानसिक दुःख हैं। अत: मिथ्यादृष्टि देव निरन्तर दुःखी रहते हैं। वस्तुत: चारों गतियों में दुःख ही दुःख है। कहीं भी सुख नहीं है। कहा भी है - जो विमानवासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय। तह” चय थावर तन धरै, यो परिवर्तन पूरे करें। तथा - ETE TEEiy cim

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