Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 265
________________ on B F85 २६॥ जिज्ञासु ने जिज्ञासा प्रगट की - अधोलोक और मध्यलोक तो जाना कृपया ऊर्ध्वलोक को भी संक्षेप | | में बतायें। दिव्यध्वनि में आया - हाँ सुनो ! मेरुपर्वत की चूलिका से ऊपर ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होता है। ऊपर-ऊपर | दक्षिण और उत्तर के रूप में दो-दो के युगल में सोलह स्वर्ग हैं, इन्हें कल्प कहते हैं तथा इनमें रहनेवाले इन्द्र-इन्द्राणियाँ एवं देव-देवियाँ कल्पवासी कहलाते हैं। इनके ऊपर अधोग्रैवेयक, मध्यप्रैवेयक एवं ऊर्ध्वग्रैवेयक के भेद से तीन-तीन के जोड़े से नौ ग्रैवेयक हैं। इनके आगे नौ अनुदिश और उनके ऊपर पाँच अनुत्तर विमान हैं। अनुदिश व अनुत्तर विमानों का एक-एक पटल है। अन्त में ईषतप्राग्भार भूमि है। इसी के अन्त तक ऊर्ध्वलोक है। स्वर्गों के समस्त विमान ८४ लाख ९७ हजार २३ हैं। प्राग्भारभूमि (सिद्धशिला), ढाईद्वीप, प्रथम स्वर्ग का ऋजुविमान, प्रथम नरक का सीमान्तक इन्द्रकबिल और सिद्धालय - ये पाँच स्थान विस्तार की अपेक्षा समान हैं अर्थात् ये सब ४५ लाख योजन विस्तारवाले हैं। पंचाग्नि आदि तप तपनेवाले अन्य मतावलम्बी साधुओं की उत्पत्ति अपने-अपने शुभभावों के अनुसार भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में होती है। परिव्राजक संन्यासियों की उत्पत्ति ब्रह्मलोक तक और अन्यमतियों की उत्पत्ति भी सहस्रार स्वर्ग (१२ वें स्वर्ग) तक होती है। श्रावक सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तक जाते हैं और नग्न दिगम्बर मुनि उससे आगे भी जा सकते हैं। इसके आगे सर्वार्थसिद्धि तक रत्नत्रय के धारक मुनिराज ही पहुँचते हैं। ईषत्प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी मध्य में आठ योजन मोटी है। उसके आगे दोनों ओर क्रम क्रम से कम-कम होती हुई अन्तभाग में अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण अत्यन्तसूक्ष्म रह जाती है।" ___"मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यंचगति के जीव रहते हैं। मनुष्यगति में कैसे-कैसे दुःख हैं, इनसे तो हम | सब थोड़े-बहुत परिचित हैं। जब यह जीव माँ के उदर में आता है तो नौ माह तक औंधे मुँह लटकता है और शरीर के सिकुड़ने से तो दुःख पाता ही है, माँ के गर्भ में भी माँ के तीखे खान-पान और उठने-बैठने | से भारी पीड़ा होती है, गोद में आते ही उसका कारुणिक रोना ही इसके दुःख को व्यक्त करता है। FF TTE 54_o

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