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अध्ययन गुरु परम्परा की अपेक्षा रखता है तो अर्थज्ञान भी गुरु परम्परा की अपेक्षा रखेगा - यह न्याय सिद्ध बात है।
शब्दों के अर्थ में जो प्रवृत्ति है, वह या तो रूढि से होती है या गुरु के बताये अनुसार - क्रिया के आधीन होती है; परन्तु जिनके हृदय में गुरु का उपदेश चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता, वे गुरु के द्वारा प्रतिपादित अर्थ को भूल जाते हैं। वस्तुतः 'अजैर्यष्टव्यं' इस वेद वाक्य में 'अज' शब्द का अर्थ रूढ़िगत अर्थ से दूर 'न जायन्ते इति अजः' अर्थात् जो उत्पन्न न हो सके वे अज हैं। इस व्युत्पत्ति से क्रिया सम्मत 'तीन वर्ष पुराना धान्य' गुरु द्वारा बताया गया है। यद्यपि प्रसंगानुसार 'अज' शब्द का अर्थ बकरा भी होता है; परन्तु यहाँ इस प्रसंग में 'अज' शब्द का अर्थ - पृथ्वी, खाद-पानी आदि के रहते हुए भी जिस धान्य में अंकुर आदि प्रगट न हो सके ऐसा तीन वर्ष पुराना धान 'अज' कहलाता है। ऐसे धान से यज्ञ करना चाहिए - यह 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्य का अर्थ है।
यज् धातु का अर्थ देवपूजा है, इसलिए द्विजों को पूर्वोक्त धान से ही पूजा करना चाहिए। साक्षात् पशु की बात तो दूर ही रहो, पशुरूप से कल्पित चून के पिण्ड से भी पूजा नहीं करना चाहिए; क्योंकि अशुभ संकल्प से भी भयंकर पाप होता है। नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव निक्षेप से जो चार प्रकार का पशु कहा गया है, उसकी हिंसा का कभी मन में विचार भी नहीं आना चाहिए। ___यह जो कहा है कि - मंत्रों द्वारा होनेवाली मृत्यु से दुःख नहीं होता, वह बात सर्वथा मिथ्या है; क्योंकि यदि दुःख नहीं होता तो जिसप्रकार पहले स्वस्थ अवस्था में मृत्यु नहीं हुई थी; उसीप्रकार अब भी मृत्यु नहीं होनी चाहिए। यदि पैर बाँधे बिना और नाक मूंदे बिना अपने आप पशु मर जावे तब तो उक्त बात मानी भी जा सकती थी; परन्तु यह असंभव बात है। बंध्य पशु के चीत्कार तथा आँखों से झरते आँसुओं से ही | उसके दुःख का अनुमान हो जाता है कि वह कितना बेबस है।
अध्यात्म की आड़ लेकर जो यह कहा जाता है कि “आत्मा तो सूक्ष्म है, वह आग में जलता नहीं, पानी में गलता नहीं, अस्त्रों-शस्त्रों से कटता नहीं" यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यह कुतर्क है। यह
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