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जैसे राग का कर्ता जीव, क्रोध का कर्ता जीव। इसे न मानें तो संसारी व सिद्ध में भेद नहीं रहने से चरणानुयोग व करणानुयोग के विषय का क्या होगा ?
४. अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय - पर्याय-पर्यायवान् गुण-गुणी में भेद करना । जैसे आत्मा में केवलज्ञान आदि अनन्त गुण एवं शक्तियाँ हैं । इसे न मानने से स्वभाव की सामर्थ्य का ज्ञान नहीं होगा ।
अजीवतत्त्व :- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये पाँच अजीव तत्त्व हैं जो पूर्ण स्वतंत्र | एवं स्व संचालित हैं । ये भी अनादि-अनन्त हैं और अनंतशक्तिमय हैं तथा सम्यग्दर्शन के विषयभूत हैं। छह द्रव्य के प्रकरण में इनका उल्लेख हो चुका है । सम्पूर्ण संसारी जीवों के शरीर की संरचना अपनी-अपनी योग्यतानुसार तज्जातीय पुद्गल स्कन्धों से स्वतः ही होती रहती है ऐसी सामर्थ्य पुद्गल स्कन्धों में स्वयं की है।
इस शरीर में ही एकत्व करने से ये संसारी जीव अटके हैं। स्वयं जीव है, उसे तो जानते - पहिचानते नहीं और शरीर को ही सब कुछ मानकर बहिरात्मा बना है । अत: इसे अवश्य जानें ।
आस्रवतत्त्व :- काय, वचन एवं मन की क्रिया को योग कहते हैं, योग की क्रिया से कार्माणवर्गणाओं का आना आस्रव कहलाता है । उसके शुभ व अशुभ दो भेद हैं।
आस्रव के स्वामी दो हैं- कषाय सहित जीवों को जो आस्रव होता है उसका नाम साम्परायिक आस्रव है और कषाय रहित जीवों को जो आस्रव होता है उसका नाम इर्यापथ आस्रव है । किन भावों से किन कर्मों का आस्रव होता है तथा ये आस्रव दुःखद हैं, अत: इसे भी अवश्य जाने और जानकर इनका त्याग कर दें।
बन्धतत्त्व :- कषाय से कलुषित जीव प्रत्येक क्षण कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध | कहलाता है । यह बन्ध अनेक प्रकार का है, सामान्यरूप से बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है।
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