Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 260
________________ २५६ | है । ध्यान रहे, इस दूसरे भेद का एक नाम शुद्धनिश्चयनय भी है, जो मूलनय के नाम से मिलता-जुलता है; अतः अर्थ समझने में सावधानी रखें। hotos 5 ह रि वं श क (ग) एकदेशशुद्धनिश्चयनय - इस नय से मति - श्रुतज्ञानादि पर्यायों को जीव का कहा है। जैसे मतिश्रुत - ज्ञानी जीव । (घ) अशुद्धनिश्चयनय यह नय आत्मा को रागादि विकारी भावों से सहित होने से रागी -द्वेषी-क्रोधी आदि कहता है । ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं शुद्धनिश्चयनय के तीनों भेदों का प्रयोग समुदायरूप में भी हुआ है। परमशुद्धनिश्चयनय के अलावा तीनों का व्यवहारनय के रूप में भी प्रयोग किया है। अत: अर्थ समझने में सावधानी की जरूरत है । - व्यवहारनय का कार्य एक अखण्ड वस्तु में, गुण-गुणी में, पर्याय- पर्यायवान में भेद करके तथा देह व जीव आदि दो भिन्न द्रव्यों में अभेद करके वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना है । दि व्य ध्व नि व्यवहारनय के मूलतः चार भेद हैं - १. उपचरित असद्भूत व्यवहारनय - इस नय से संश्लेष सम्बन्धरहित परद्रव्य जैसे स्त्री-पुत्र, परिवार एवं धनादि को अपना कहा जाता है। इसे न मानने से स्वस्त्री-परस्त्री का विवेक नहीं रहेगा, निजघर - परघर, निजधन-परायाधन आदि का व्यवहार संभव न होने से नैतिकता का ह्रास होगा। लोक व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी। २. अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय इस नय से संश्लेष सम्बन्ध सहित देह को ही जीव कहा जाता है, जिसे न मानने से द्रव्यहिंसा से बचाव नहीं हो सकेगा अर्थात् राख, कोयला मसलना और पंचेन्द्रिय जीव का गला दबाना एक समान हो जायेगा । २५ ३. उपचरित सद्भूत व्यवहारनय - यह नय विकार एवं गुण-गुणी में भेद करके उन्हें जीव कहता है । 5 का नि रू प ण

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