Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 262
________________ प्रकृति का अर्थ है स्वभाव । जिसप्रकार नीम की प्रकृति कड़वी (तिक्त) है, उसी तरह ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति ज्ञान पर आवरण करना है, ज्ञान नहीं होने देना । उनका अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति रि | बंध है। जैसे - बकरी, गाय तथा भैंस आदि के दूध अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध जो कर्म की शक्ति विशेष (तीव्र अथवा मंद भावों) से रहती हैं वह अनुभागबंध है और कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्धों के समूह में परमाणु के प्रमाण से कल्पित खण्डों की संख्या प्रदेशबंध है। | आत्म परिणामों में स्थित मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - ये बन्ध के कारण हैं। इनमें मिथ्यादर्शन निसर्गज और अन्योपदेशज अर्थात् अगृहीत और गृहीत के भेद से दो प्रकार का है। मिथ्यात्वकर्म के उदय से अनादिकाल से चली आ रही तत्त्व की अश्रद्धा अगृहीत मिथ्यादर्शन है और दूसरों के उपदेश से अतत्त्व की श्रद्धा होना गृहीत मिथ्यात्व है। ध्यान रहे, अगृहीत में तत्त्वों की अश्रद्धा होती है और गृहीतों में अतत्त्वों की श्रद्धा करने वाला है। इनके एकांत, विपरीत, विनय, संशय व अज्ञान - ऐसे पाँच भेद तो हैं ही; क्रियावादी, अक्रियावादी, वैनयिकवादी और अज्ञानवादी के भेद से चार भेद भी आगम में गिनाये हैं। इनमें वैनयिक और अज्ञान तो दोनों भेदों में समान ही हैं; शेष तीन में असमानता है। पाँच इंद्रिय और मन को वश में नहीं करना एवं छह काय के जीवों की रक्षा नहीं करना अविरति है, पंद्रह प्रकार का प्रमाद और पच्चीस कषायें तथा पंद्रह प्रकार का योग ये सब बन्ध के कारण हैं। प्रकृति और प्रदेश बंध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति व अनुभाग में कषाय निमित्त होती है। निर्जरा के विपाकजा और अविपाकजा के भेद से दो भेद हैं। संसार में भ्रमण करने वाले जीव का कर्म जब फल देने लगता है, तब क्रम से उस कर्म की जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। जिस प्रकार आम आदि फलों को पाल में असमय में ही पका लिया जाता है, उसी प्रकार उदयावली में अप्राप्त कर्म की तपश्चरण आदि उपायों से निश्चित समय से पूर्व ही उदीरणा द्वारा जो निर्जरा की जाती है, वह अविपाक निर्जरा है। REFER FAV

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