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| ये दोनों आपसे 'दूध का दूध और पानी का पानी' की नीति के अनुसार न्याय प्राप्त करने आये हैं। वृद्धजनों | के कहने पर राजा वसु ने पर्वत को पूर्वपक्ष रखने के लिए अवसर दिया। अपना पूर्वपक्ष रखते हुए पर्वत ने | कहा - 'स्वर्ग के इच्छुक मनुष्यों को अजों द्वारा यज्ञ की विधि करनी चाहिए' यह एक श्रुति है, इसमें जो
'अज' शब्द है, उसका अर्थ चार पैर वाला जन्तु विशेष (बकरा) है। 'अज' शब्द न केवल वेद में ही पशु| वाचक है, बल्कि लोक में भी पशुवाचक ही है। पर्वत ने अपनी बात की पुष्टि में आगे कहा - हमें यह
आशंका नहीं करना चाहिए कि - घात करते समय पशु को दुःख होता होगा; क्योंकि मंत्रों के प्रभाव से उसकी मृत्यु सुख से होती है। उसे नाममात्र भी दुःख नहीं होता। दीक्षा के अन्त में मंत्रों का उच्चारण होते ही पशु को सुखमय स्थान साक्षात् दिखाई देने लगता है; क्योंकि मणि-मंत्र-तंत्र और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है।
एक बात यह भी है कि - अत्यन्त सूक्ष्म आत्मा न तो अग्नि में जलती है, न पानी में गलती है, न हवा में उड़ती है और न अस्त्र-शस्त्रों से कटती है तथा याज्ञिक लोग यज्ञ में पशु का घात करके उसके चक्षुओं को सूर्य के पास, कानों को वायु के पास, खून को जल के पास और प्राण वायु को पृथ्वी के पास भेज देते हैं। इस तरह याज्ञिक उसे सुख ही देते हैं न कि कष्ट' इत्यादि तर्कों से पर्वत ने अपना पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया।
उत्तरपक्ष में पशुवध के विरुद्ध बोलते हुए नारद ने कहा - हे सज्जनो! और हे राजन! सावधान होकर आप लोग मेरी बात सुनिए ! मैं पर्वत के द्वारा प्रस्तुत आधारहीन पूर्वपक्ष के कुतर्कों का निराकरण आगम एवं युक्तियों से करता हूँ। __'अजैर्यष्टव्यं' इत्यादि वाक्य में पर्वत ने जो भी कहा है, वह बिल्कुल असत्य है; क्योंकि मूलतः अज शब्द का अर्थ जो पशु किया है, वह असत्य है। यह कोरी मनगढन्त कल्पना है, वेद में शब्दार्थ की व्यवस्था अपने अभिप्राय से नहीं होती; किन्तु वह वेदाध्ययन के समान गुरुओं के उपदेश की अपेक्षा रखती है। अतः || गुरुओं की पूर्व परम्परा से शब्दों के अर्थ का निश्चय करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि - यदि |