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|| है; अन्यथा हम इस आर्तध्यान से नहीं बच सकेंगे।
इसीप्रकार मुख्यतः मिथ्यात्व की भूमिका में ही रौद्रध्यान होता है - वह रौद्रध्यान भी चार प्रकार का है। (१) हिंसानन्दी रौद्रध्यान (२) मृषानन्दी रौद्रध्यान (३) चौर्यानन्दी रौद्रध्यान (४) परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान । यह रौद्रध्यान आनन्द रूप होता है। इसके फल में जीव नरक में जाता है। जैसे कि राजा वसु ने मोहवश 'अज' शब्द का मिथ्या अर्थ प्रचारित करके हिंसा की परम्परा को तो प्रश्रय दिया ही, झूठ भी बोला और पर्वत का पक्ष लेकर हिंसा एवं झूठ को बढ़ावा देकर मन ही मन आनन्दित भी हुआ । परिणामस्वरूप सातवें नरक गया।
यह तो सभी जानते हैं कि द्रव्य हिंसा करना किसी के वश की बात नहीं है; क्योंकि कुन्दकुन्दस्वामी स्वयं ही समयसार के बन्ध अधिकार में लिखते हैं कि -
निज आयुक्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही।
तुम मार कैसे सकोगे, जब आयु हर सकते नहीं। हम आयु हर सकते नहीं, तो मरण हमने कैसे किया? इसप्रकार की एक नहीं अनेक गाथायें हैं; अतः यदि प्रमाद एवं कषायवश हमने मारने या बचाने का अशुभ या शुभभाव किया तो हमें उन्हीं भावों का फल प्राप्त होता है। अज्ञानी जीव दिन-रात राग-द्वेष और मोहवश मारने/बचाने के अशुभ-शुभभावों से पापपुण्य बाँधता ही रहता है। फलस्वरूप कभी नरक तो कभी स्वर्ग के दुःख-सुख भोगता रहता है। यदि संसार में जन्म-मरण के दुःख नहीं भोगना हों तो इस हिंसानन्दी रौद्रध्यान से बचें। रौद्रध्यान तो अशुभ ही होता है, जिसका फल नरक है।
सब लोगों के समक्ष जब वसु पाताल (नरक) में चला गया तब सब ओर आकुलता से भरे हा! हा!! धिग्! धिग्!! शब्द गूंजने लगे। जिसे तत्काल असत्य बोलने का फल मिल गया था, उस राजा वसु की सब लोगों ने निन्दा की और दुष्ट पर्वत का तिरस्कार करके उसे नगर से बाहर निकाल दिया। तत्त्ववादी, गंभीर एवं वादियों को परास्त करने वाले नारद को लोगों ने ब्रह्मरथ पर सवार किया तथा उसका सम्मान कर सब
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