Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 244
________________ २४० ह रि वं श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम उस पवित्र शिला पर पूजा की और उसके बाद अपनी दोनों भुजाओं से उसे चार अंगुल ऊपर उठाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। वह शिला एक योजन ऊँची, चार योजन लम्बी और | एक योजन चौड़ी है । अर्द्ध भरतक्षेत्र में स्थित एवं देवों द्वारा सुरक्षित है। श क पहले त्रिपृष्ठ नारायण ने इस शिला को जहाँ तक भुजाएँ ऊपर पहुँचती हैं, वहाँ तक उठाया था । दूसरे द्विपृष्ठ ने मस्तक तक, तीसरे स्वयंभू ने काण्ड तक, चौथे पुरुषोत्तम ने वक्षस्थल तक, पाँचवें नृसिंह ने हृदय | तक, छठे पुण्डरीक ने कमर तक, सातवें दत्तक ने जांघों तक, आठवें लक्ष्मण ने घुटनों तक और नवें नारायण श्रीकृष्ण ने उसे चार अंगुल तक ऊपर उठाया था; क्योंकि इस हुण्डावसर्पिणी कालचक्र में समय बीतने के साथ-साथ प्रधान पुरुषों की आदि से अन्त तक लेकर सभी की शक्ति घटती आई है। शिला उठाने के बल से समस्त सेना ने जान लिया कि श्रीकृष्ण महान शारीरिक बलसहित हैं। चक्ररत्न को धारण करनेवाले श्रीकृष्ण बान्धवजनों के साथ द्वारिका की ओर वापस आये । तत्पश्चात् वृद्धजनों द्वारा जिनका नानाप्रकार के आशीर्वादों से अभिनन्दन किया गया - ऐसे श्रीकृष्ण नारायण ने द्वारिका में प्रवेश किया। 65 ज्ञातव्य है कि उस उत्कृष्ट शिला पर से करोड़ों मुनिराज सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं । इसीकारण वह पृथ्वी पर कोटिकशिला के नाम से प्रसिद्ध है । था द्वारिका में वसुदेव एवं श्रीकृष्ण का विश्वविजय के उपलक्ष्य में खूब स्वागत कर अभिषेक किया गया । तत्पश्चात् अर्द्धचक्री श्रीकृष्ण ने जरासंध के द्वितीय पुत्र सहदेव को राजगृह का राजा बनाया और उसे मगधदेश का एक चौथाई राज्य दिया । उग्रसेन के पुत्र को मथुरापुरी दी, महानेमि के लिए शौर्यपुर दिया । पाण्डवों को उनका प्रिय हस्तिनापुर दिया तथा राजा रुधिर के पोते रुक्मनाम के लिए कौशल देश दिया। इसप्रकार श्रीकृष्ण ने आये हुए समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं को यथायोग्य स्थानों पर स्थापित कर वहाँ का राजा बनाया । तत्पश्चात् आगंतुक मेहमान प्रसन्नचित्त हो यथास्थान चले गये । यादव देवों के समान द्वारिका में ही क्रीड़ा करने लगे । ज रा सं 55 1 1 59 घ औ र या द व यु द्ध २३

Loading...

Page Navigation
1 ... 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297