Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 249
________________ वैराग्य में पशुओं का बन्धन कारण बना और नेमिकुमार ने अपना रथ मोड़ दिया। उन्होंने शादी नहीं की। | यह ध्रुवसत्य है। सोचने लगे - "जिसतरह सैकड़ों नदियाँ भी समुद्र को सन्तुष्ट नहीं कर पाती; उसीतरह बाह्य | विषयों से उत्पन्न सांसारिक सुखसाधन जीवों का दुःख दूर नहीं कर सकते हैं" - ऐसा विचार कर नेमिकुमार ने दीक्षा लेकर मुनि बनने का निश्चय कर लिया। उसी समय पंचम स्वर्ग से लौकान्तिक देव नेमिनाथ के | वैराग्य की अनुमोदना करने आ पहुँचे उन्होंने निवेदन किया, इस समय भरतक्षेत्र में धर्मतीर्थ प्रवर्तन का समय है, अत: धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कीजिए। देव-देवेन्द्रों ने महोत्सवपूर्वक उनका जोरदार दीक्षाकल्याणक मनाया। सर्वप्रथम इन्द्रों ने स्तुति की। बाद में स्नान पीठ पर विराजमान कर देवों द्वारा लाए हुए क्षीरोदक से उनका अभिषेक किया गया एवं वस्त्राभूषणों से विभूषित किया। उत्तम सिंहासन पर विराजमान नेमिकुमार को घेरकर खड़े हुए कृष्ण, बलभद्र आदि अनेक राजा सुशोभित हो रहे थे। इन सबने उन्हें रागवश रोका; पर वे रुके नहीं। वे कुबेर द्वारा निर्मित पालकी की ओर आगे बढ़े और बैठ गये। पहले कुछ दूर पृथ्वी पर तो राजाओं ने पालकी उठाई, पश्चात् देवगण आकाशमार्ग से गिरनार पर्वत पर पालखी लेकर पहुँचे। वहाँ नेमिनाथ ने पालकी का त्यागकर शिलातल पर विराजमान होकर पंचमुष्ठि केशलोंच किया। उनके साथ गये एक हजार राजाओं ने भी जिनदीक्षा धारण की। देवेन्द्रों द्वारा विधिवत् दीक्षा कल्याणक मनाने के पश्चात् मुनिराज नेमिकुमार की स्तुति की गई। स्तुति में देवताओं ने कहा - "हे मुनिवर! आप क्रोध और तृष्णा से रहित हैं, निष्काम है, निर्मान हैं। हे मुनि ! आप मननशील हैं, आपको हम सब बारम्बार नमन करते हैं।" जब मुनिराज आहार लेने के लिए द्वारिकापुरी में आये तब उत्तम तेज के धारक सेठ प्रवरदत्त ने उन्हें खीर का आहार देकर देवों द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त की। राजमती ने भी नेमिकुमार की विराग परिणति का निमित्त पाकर अपनी परिणति को राग-रंग से हटाकर || ज्ञान-ध्यान में लगाने का निश्चय कर लिया। वह सामान्य नारियों की तरह नेमिकुमार के दीक्षित हो जाने ॥ से उनके वियोग से दुःखी नहीं हुईं। उन्होंने भी संसार, शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता को जानकर तथा ॥ २४ TE OF

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