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___हम दोनों उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते - हर समय साथ-साथ रहते थे; इसकारण हमारा वियोग करने का अवसर नहीं मिलता था। एक दिन उसने किसी तंत्र/टोटका द्वारा हम दोनों को गहरी निद्रा में निमग्न करके मुझे घर से बाहर निकाल कर नाली में पटकवा दिया। निद्रा भंग होने पर जब मैंने स्वयं | को नाली में पड़ा पाया तो मैं उसकी माँ की करामात समझकर अपने घर चला गया। मेरे पिता तब तक | मुनि दीक्षा ले चुके थे। इसकारण मेरी माता और पत्नी दोनों बहुत दुःखी थे।
घर की आर्थिक स्थिति खराब तो हो ही चुकी थी, अतः माँ और पत्नी को आश्वस्त करके एवं धैर्य बँधाकर मैं मामा के साथ व्यापार हेतु देशान्तर गया। वहाँ भाग्य की प्रतिकूलता के कारण मैंने पत्नी के आभूषण बेचकर उस पूँजी से कपास खरीदा था, परन्तु उसमें आग लग गई। मैंने हिम्मत नहीं हारी, मामा को वहीं छोड़कर घोड़े पर सवार होकर पूर्व दिशा की ओर आगे बढ़ा तो रास्ते में घोड़ा मर गया।
वस्तुतः जब तक भाग्य साथ नहीं देता और पाप का प्रबल उदय चल रहा हो तो पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं होता है। आगम में ठीक ही कहा है "किसी भी कार्य में जबतक भली होनहार न हो तब तक कार्य में सफलता नहीं मिलती।"
वहाँ से साहस जुटा कर व्यापार के लिए ही समुद्र यात्रा पर गया तो मेरा जल जहाज फट गया।
चारुदत्त ने आप बीती सुनाते हुए आगे कहा - "भाग्यवश एक काष्ठ का तख्ता पाकर मैं बड़े कष्ट से समुद्र पार कर जब राजपुर नगर आया तो वहाँ एक सन्यासी वेषधारी दुष्ट पुरुष से भेंट हो गई। पहले तो वह मुझे रसायन का लोभ देकर एक सघन अटवी में ले गया । मैं उसकी चालाकी भरी चाल को समझ न सका। उसने एक तूमड़ी देकर मुझे रस्सी के सहारे एक कुएँ में उतारा । नीचे पहुँच कर जब मैं तूम्बी में रसायन भरने लगा तब पहले से ही वहाँ पड़े एक पुरुष ने मुझे सावधान किया। उसने कहा कि “हे भद्र ! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो इस भयंकर रसपान को हाथ मत लगाना, अन्यथा इसके छूते ही तू मरणासन्न हो जायेगा।"
मैंने उससे पूछा - "आप कौन हैं? और यहाँ इस हालत में तुम्हें किसने पहुँचाया है?"
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