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' वैश्या पुत्री वसन्तसेना अपनी माँ का घर त्यागकर मेरी अनुपस्थिति में भी मेरी माँ अर्थात् अपनी सास की सेवा करती रही तथा अणुव्रतों से विभूषित हो गई।' - यह जानकर मैंने उसे अपनी पत्नी के रूप में रि स्वीकृत कर लिया, अपना लिया। मैंने दीन व अनाथ लोगों को किमिच्छक दान दिया और समस्त वं
कुटुम्बीजनों के लिए भी उनकी इच्छानुसार वस्तुएँ दीं ।"
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इसप्रकार चारुदत्त ने यदुवंशी वसुदेव से कहा - कि "हे यादव ! विद्याधर कुमारी गंधर्वसेना का मेरे साथ | जो पवित्र सम्बन्ध है तथा इस वैभव की मुझे जो प्राप्ति हुई है, वस्तुत: यह कन्या आपके लिए ही रखी गई थी, अतः इस भाग्यशालिनी कन्या ने आपको ही प्राप्त कर लिया है। इसे स्वीकार कीजिए । "
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विशिष्ट ज्ञानी तपस्वियों ने बताया है कि 'मेरा मोक्ष निकट है और तपधारण करने से इस भव के बाद | मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा; इसलिए अब मैं निश्चिन्त होकर तप ही धारण करूँगा।' इसप्रकार वसुदेव चारुदत्त की | उत्साहपूर्ण वार्ता सुनकर एवं गंधर्वसेना के पवित्र सम्बन्ध को जानकर बहुत सन्तुष्ट हुआ और चारुदत्त की प्रशंसा करते बोले हुए "अहो ! आपका स्वभाव अत्यधिक उदार है आपका असाधारण पुण्यप्रताप भी प्रशंसनीय है । भली होनहार के एवं सही तत्त्वज्ञान के बिना ऐसा पौरूष और साहस संभव नहीं है। देव तथा विद्याधर भी ऐसे वैभव को प्राप्त नहीं हो सकते। अन्य साधारण की तो बात ही क्या है ।
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इसप्रकार आपस में एक-दूसरे के स्वरूप को जाननेवाले तथा त्रिवर्ग के अनुभव से प्रसन्न चारुदत्त आदि सुख से रहने लगे। चारुदत्त के जीवन का उतार-चढ़ाव एवं विचित्र घटनाओं को लक्ष्य में लेकर आचार्य कहते हैं कि - "हे राजन् ! हे वसुदेव ! धर्मात्मा मनुष्य भले ही पूर्व क्षणिक पापोदय के कारण कुछ काल के लिए निर्धन हो गया हो, समुद्र में गिर गया हो, कुएँ में भी उतर गया हो, किसी भी कठिनाई में पड़ गया हो - तो भी पापक्षीण होने पर धर्म के प्रभाव से पुनः सर्वप्रकार से सम्पूर्ण सुःख के साधनों से सम्पन्न हो जाता है। अतः जिनेन्द्र द्वारा निरूपित धर्म चिन्तामणि का सतत् संचय करो ।
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