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|| दोनों पत्नियों के साथ वहाँ से प्रस्थान कर उन सभी पत्नियों को साथ लेने हेतु प्रत्येक के यहाँ गये, जिन्हें पिछले सौ वर्ष के अपने अज्ञातप्रवास में उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए विजयश्री के बाद विवाह कर वरण किया था।
वसुदेव के वापस आने पर समुद्रविजय ने प्रजाजनों से नगर की शोभा कराके हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। वसुदेव ने अपनी समस्त पत्नियों सहित विमान से उतरकर बड़े भाईयों एवं गुरुजनों को प्रणाम किया तथा अन्य लोगों ने प्रेमपूर्वक वसुदेव को प्रणाम किया। वहाँ उपस्थित शिवा आदि महारानियों ने वसुदेव को आलिंगन कर आदरभाव प्रगट करते हुए बारम्बार यही आशीर्वाद दिया हे वसुदेव ! यह सब पूर्वोपार्जित पुण्य और जिनधर्म की उपासना का ही सुफल है। जिनधर्म की साधना, आराधना करने से जो आत्मा में शुद्धि और विशुद्धि होती है, उससे ही ऐसा पुण्यबंध होता है, जिससे यह सब अनुकूलता और विजय की प्राप्ति होती है। अत: तुम इस जिनधर्म को कभी नहीं भूलना। हमारा तुम्हारे लिए यही मंगल आशीर्वाद एवं शुभकामना है कि "तुम जिनधर्म की शरण में रह कर परमातमा की आराधना के आलम्बन से आत्मा की साधना करके आत्मा में स्थिर होकर अल्पकाल में मुक्ति प्राप्त करो।"
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मैंने सोचा - "कहीं सचमुच ऐसा न हो कि सच्चे वैराग्य के बजाय ये लोग पारिवारिक परिस्थितियों से परेशान होकर कहीं किसी से द्वेष या घृणा करने लगे हों और ये स्वयं भ्रम से उसे ही वैराग्य मान बैठे हों।
इन परिस्थितियों में भी सभ्य भाषा में लोग ऐसा ही बोलते हैं। न केवल बोलते हैं, कभी-कभी उन्हें स्वयं को ऐसा लगने भी लगता है कि वे विरागी हो रहे हैं; जबकि उन्हें वैराग्य नहीं, वस्तुत: द्वेष होता है। केवल राग अपना रूप बदल लेता है, वह राग ही द्वेष में परिणित हो जाता है, जिसे वे वैराग्य या संन्यास समझ लेते हैं।"
- विदाई की बेला, पृष्ठ-३१, हिन्दी संस्करण दसवाँ
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