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अब धीर-वीर पाण्डवों का सुख से समय बीत रहा था। उन्हें सुखी देख कौरव अपने स्वभाव के कारण पुन: अपनी सीमा का उल्लघंन करने लगे, मर्यादा खोने लगे। दुर्जनों का ऐसा ही स्वभाव होता है कि वे दूसरों को सुखी नहीं देख सकते, यदि वे कुटुम्ब के हों तब तो उनकी ईर्ष्या का कहना ही क्या है ? कौरवों का मामा शकुनि इस विषय में दुर्योधनों से भी एक कदम आगे था। उसकी नीति दोनों को आपस में लड़ाकर तमाशा देखने की थी। वह दोनों पलीतों दे दो तैल, तुम नाचौ हम देखें खेल'वाली नीति अपना कर मजा लेता था। उसने दुर्योधन को उकसाकर युधिष्ठिर के साथ जुआ खेलने को कहा और अपनी चालाकी से जुए की चाल चलाकर युधिष्ठिर के विरुद्ध दुर्योधन को जिता दिया।
जीत लेने पर दुर्योधन ने युधिष्ठिर से कहा - तुम सत्यवादी हो, तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार यहाँ से चला जाना चाहिए। और ऐसे स्थान पर छुपकर रहना चाहिए कि जहाँ से तुम्हारा नाम भी सुनाई न दे सके।
दुर्योधन की इस बात को सुनकर यद्यपि भीमसेन आदि भाईयों को क्षोभ हुआ, तथापि युधिष्ठिर के कहने पर शान्त होकर वे बारह वर्ष की लम्बी अवधि के लिए सब राजपाट छोड़कर हस्तिनापुर से बाहर निकल गये। चन्द्रमा की चाँदनी की भांति द्रौपदी भी अर्जुन के पीछे-पीछे गई।
धैर्य से सम्पन्न, उत्तम शक्ति से सुशोभित एवं एक-दूसरे के हित में तत्पर वे सब श्रेष्ठ पुरुष रास्ते में पुण्यपाप के उदयानुसार सुविधा-असुविधा सुख-दुःख एवं संकटों को झेलते हुए रामगिरि पर्वत पर पहुंचे, जहाँ पहले राम-लक्ष्मण रह चुके थे। और उनके द्वारा निर्मित सैकड़ों जिनमन्दिर थे। पाण्डवों ने भी उन जिनमन्दिरों | में विराजित जिन प्रतिमाओं की भक्ति-भाव से वंदना की। वे भाग्यशाली पाण्डव रामगिरि पर्वत पर ही ग्यारह
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