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"लोक में एक अक्षर, आधे पद अथवा एक पद का ज्ञानदान देनेवाले गुरु को जो भूल जाता है, जब | || वह भी कृतघ्न है, पापी है तो धर्मोपदेश के दाता को भूल जानेवाले कृतघ्नियों का तो कहना ही क्या है ?
नीति कहती है कि - "न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति - किए हुए उपकार को सज्जन कभी भूलते | नहीं हैं।" उपकारी व्यक्ति की कृतकृत्यता प्रत्युपकार से ही होती है।
तात्पर्य यह है कि अपना उपकार करनेवाले व्यक्ति का अवसर आने पर प्रत्युपकार किया जावे । यदि कदाचित् उपकार करने की सामर्थ्य न हो तो उपकारी के प्रति विनम्र व्यवहार के साथ कृतज्ञता ज्ञापन तो करना ही चाहिए।" - ऐसा कह कर दोनों देव चले गये।
चारुदत्त ने अपनी आत्मकथा को आगे बढ़ाते हुए कहा - देवों के चले जाने पर मैंने भी मुनिराज को नमन किया और मैं विद्याधरों के साथ शिवमन्दिर नगर में गया और वहाँ सुख से रहने लगा।
एक दिन वे दोनों विद्याधर कुमार अपनी माता के साथ मेरे पास आये तथा मेरे लिए अपनी बहिन कुमारी गंधर्वसेना को दिखाकर मेरे साथ इसप्रकार सलाह करने लगे कि एकसमय हमारे पिता राजा अमितगति ने अवधिज्ञानी मुनि से पूछा था कि - आपके दिव्यज्ञान में मेरी पुत्री गन्धर्वसेना का पति कौन दिखाई देता है ?" ___ मुनिराज ने कहा था - "गन्धर्वविद्या का पण्डित यदुवंशी राजा ही इस कन्या को गन्धर्वविद्या में जीतेगा तथा वही इसका पति होगा। आपके आने से वह घोषणा सत्य साबित हो रही प्रतीत होती है।
राजा अमितगति तो बाद में मुनि हो गये हैं; परन्तु अवधिज्ञानी मुनि की घोषणा के अनुसार वह कन्या गन्धर्वसेना मुझे सौंप दी गई। कन्या के दोनों भाइयों ने नाना रत्न और सुवर्ण आदि सम्पदा के साथ मुझे चम्पानगरी तक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी। दोनों देवों ने भी उपकार के बदले मेरी सहायता की। तदनन्तर दोनों देव स्वर्ग चले गये और दोनों विद्याधर भी अपने स्थान पर गये। मैं अपने मामा, माता, पत्नी तथा अन्य बन्धुवर्ग से बड़े आदर से मिला । सबको संतोष हुआ और मैंने भी बहुत सुख का अनुभव किया।
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