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मुनिराज वहाँ नहीं थे, वे आहारचर्या को गये थे, इस कारण उन्हें गुरु के आदेश का पता नहीं था। राजा के आने के समय शेष समस्त मुनिराज गुरु अकम्पनाचार्य की आज्ञा से मौन बैठे थे, इसकारण उससमय तो चारों मंत्री विवश होकर लौट आये। लौटकर आते समय उन्होंने रास्ते में श्रुतसागर मुनि को देख राजा के समक्ष ही उनसे वाद-विवाद प्रारंभ कर दिया; क्योंकि वे किसी भी तरह राजा को उनके विरुद्ध भड़काना चाहते थे। श्रुतसागर मुनि अपने नाम को सार्थक करनेवाले सचमुच श्रुत के सागर थे, जिनवाणी के मर्मज्ञ थे, अतः उन्होंने चारों मंत्रियों को निरुत्तर कर दिया। यहाँ तक तो कोई झंझट नहीं हुई, किन्तु श्रुतसागर ने उनके पूर्वभवों की चर्चा करके उन्हें भड़का भी दिया।
मुनि श्रुतसागर ने इस घटना को गुरु अकम्पनाचार्य को सुनाकर अपने अपराध का प्रायश्चित करने के लिए गुरु से निवेदन किया। आचार्य अकंपन ने बहुत दूरदर्शिता से विचार कर उन्हें प्रायश्चित स्वरूप उसी वाद-विवाद के स्थान पर प्रतिमावत निश्चल ध्यानस्थ रहने का आदेश दिया। तदनुसार मुनि श्रुतसागर वहाँ पहुँच कर ध्यानस्थ हो गये। बदले की भावना से वे चारों मंत्री उन्हें रात्रि में मारने आये; परन्तु जिनभक्त किसी देव द्वारा उन्हें वहीं कीलित कर दिया, बन्धनबद्ध कर दिया गया, यह घटना जब राजा को ज्ञात हुई तो राजा ने चारों मंत्रियों को न केवल नौकरी से, बल्कि देश से ही निकाल दिया।
उस समय हस्तिनापुर में महापद्म नामक चक्रवर्ती था। उसकी आठ कन्यायें थीं, जिन्हें आठ विद्याधर हरकर ले गये थे। शुद्ध शील की धारक वे कन्यायें जब वापिस लायीं गईं तो उन्होंने संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली। वे आठ विद्याधर भी संसार को असार जानकर तप करने लगे। इस घटना से प्रभावित होकर चरमशरीरी महापद्म चक्रवर्ती भी संसार से विरक्त हो गये और अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा धारण कर ली। रत्नत्रय की उत्कृष्ट साधना के साथ उग्र तपश्चरण करने से वे अनेक ऋद्धियों के धारक भी हो गये।