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| कि वह धर्म के प्रभाव से आकाश में चलता है। उसकी एक पत्नी इक्ष्वाकुवंश की और दूसरी पत्नी कुरुवंश की थी। दोनों से दस पुत्र हुए। ये सभी पुत्र वसु के ही समान पराक्रमी थे, उनके साथ राजा वसु अत्यधिक राज्यसुख का अनुभव कर रहा था।
एक दिन बहुत से छत्रधारी शिष्यों से घिरा नारद पर्वत से मिलने आया और परस्पर उचित अभिवादन | के बाद नारद वहीं बैठ गया। उस समय पर्वत छात्रों के समक्ष वेद वाक्यों की व्याख्या कर रहा था, जिसमें ‘अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद वाक्य में जो 'अज' शब्द आया उसका अर्थ करते हुए पर्वत ने कहा- 'अज' का अर्थ बकरा है, अतः स्वर्ग के वांछकजनों को 'बकरे' का होम देकर ही यज्ञ करना चाहिए।
युक्ति और आगम के अवलम्बन से अज्ञानांधकार का नाश करने वाले नारद ने अपने गुरु भाई पर्वत | के द्वारा किये गये उक्त अर्थ का विरोध करते हुये कहा कि - तुम 'अज' शब्द का इसप्रकार हिंसक, पाप प्रवृत्ति को बढ़ावा देनेवाला अनर्थकारी अर्थ क्यों कर रहे हो ? तुम्हारी इस व्याख्या से धर्म के नाम पर जो | कल्पनातीत हिंसा की परम्परा चलेगी, उस पाप के भागीदार तुम बनोगे। तुम मेरे सहपाठी रहे हो, तुम्हें यह अनर्थ परम्परा को बढ़ानेवाला अर्थ कहाँ से प्राप्त हुआ है ? गुरुजी ने तो अज शब्द का ऐसा अर्थ कभी नहीं | बताया, उन्होंने तो यह कहा था कि जिसमें अंकुर उत्पन्न होने की शक्ति नहीं रहती ऐसा पुराना धान्य 'अज' कहलाता है और यही सनातन धर्म है। नारद के इसप्रकार समझाने पर भी पर्वत ने अपना हठ छोड़ना तो दूर, उल्टी इस बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और ऐसी कठोर प्रतिज्ञा कर ली कि यदि मैं इस बात में हार जाऊँगा तो अपनी जीभ कटा लूँगा । सचमुच जिसकी होनहार खोटी हो, उसे सद्बुद्धि नहीं आ सकती।
नारद ने कहा - पर्वत ! तुम खोटा पक्ष लेकर स्वयं को दुःख की ज्वाला में जलाने का काम क्यों कर रहे हो?
उत्तर में पर्वत ने कहा - यदि तुम्हें अपने ज्ञान और धर्म का इतना ही अभिमान है तो कल राजा वसु | की सभा में दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। तुम शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहो ।
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