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उसी विजयार्द्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में मेघपुर नामक नगर के राजा पवनवेग और उसकी पत्नी | मनोहारी के कूँख से वनमाला के जीव ने पुत्री के रूप में जन्म लिया । इस भव में वनमाला का नाम 'मनोरमा' था। मनोरमा को भी अपने पूर्वभव का जातिस्मरण ज्ञान हो गया था । वे दोनों बालकबालिका अपने-अपने पितृगृहों में चन्द्रकलाओं की भाँति बढ़ रहे थे । युवा होने पर आर्य का विवाह पूर्व संस्कारों के कारण सहज ही मनोरमा के साथ हो गया और उनका काल सभी प्रकार की सांसारिक अनुकूलताओं में सुख से व्यतीत होने लगा ।
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नाम 'आर्य' था। आर्य को कुछ समय बीतने पर अपनी पूर्वभव की प्रेमिका वनमाला का जातिस्मरण ज्ञान हो गया ।
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राजा सुमुख के द्वारा पत्नी वनमाला के हरण रूप में ठगा हुआ 'वीरक सेठ' प्रारंभ में तो वनमाला के विरह में बहुत दुःखी रहा; क्योंकि अचानक अपनी प्रियतमा पत्नी के हरण हो जाने पर किसे कष्ट नहीं होगा ? परन्तु तत्त्वज्ञान के सहारे उसने संसार की दशा का विचार कर अपने आप को संभाला और | विरागी होकर साधु बनकर आत्मा-परमात्मा की साधना-आराधना करने लगा । फलस्वरूप वह | समाधिमरण द्वारा मृत्यु का वरण करके प्रथम स्वर्ग में वैभववान देव हुआ ।
यद्यपि वहाँ वह एक से बढ़कर एक अनेक देवांगनाओं का स्वामी था; परन्तु पूर्व का अनुभूत स्नेह का संस्कार बड़ी कठिनाई से छूटता है। उसने अपने अवधिज्ञान से वनमाला की वर्तमान स्थिति को जानने का प्रयत्न किया तो उसको मनोरमा का पता लग ही गया । वनमाला के भव की स्मृतियाँ भी | चित्रपट की भाँति मानस पटल पर उभरकर आ गईं। वह विचार करने लगा कि "देखो! जिस दुष्ट सुमुख ने पूर्व भव में प्रभुता के अहं में मुझे कमजोर, असहाय मानकर मेरा तिरस्कार करके मेरी पत्नी का अपहरण किया था; वह इस भव में भी उसी स्त्री के साथ राग-रंग करता हुआ एवं रतिक्रीड़ा करता हुआ दिखाई दे रहा है । यदि समर्थ होने पर भी मैंने अपने शत्रु से बदला नहीं लिया तो ऐसी प्रभुता से क्या लाभ? ऐसा सोचकर वह राजा सुमुख के जीव वर्तमान 'आर्य' विद्याधर से बदला लेने की
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