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हाँ ! हाँ !! सुनो!
जब आत्मा स्वयं मोह भाव के द्वारा आकुलता करता है तब अनुकूलता, प्रतिकूलता रूप संयोग प्राप्त होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यह साता वेदनीय और असाता वेदनीय के भेद से दो प्रकार का होता है।
जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब जिस कर्म का उदय | निमित्त हो उसे आयुकर्म कहते हैं। यह भी नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु के भेद से चार प्रकार का है।
तथा जिस शरीर में जीव हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे नामकर्म कहते | हैं। यह शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। वैसे इसकी ९३ प्रकृतियाँ हैं। ||
और जीव के उच्च या नीच आचरण वाले कुल में पैदा होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं। यह भी उच्चगोत्र और नीचगोत्र, इसप्रकार दो भेद वाला है।
राजा श्रेणिक - तो बस, कर्मों के आठ ही प्रकार हैं? दिव्यध्वनि - इन आठ भेदों के भी १४८ प्रभेद हैं, जिन्हें कर्मों की प्रकृतियाँ कहते हैं।
श्रोता तत्त्वों एवं कर्मों का स्वरूप समझकर हर्षित तो हुए; पर इस प्रसंग में जो आत्मा-परमात्मा की बात आई है, उसको जानने की जिज्ञासा जाग्रत हो गई। उसके समाधान में दिव्यध्वनि में आत्मा-परमात्मा का जो स्वरूप आया, वह इसप्रकार है - "ज्ञानस्वभावी जीवतत्त्व को ही आत्मा कहते हैं। वह अवस्था की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है -
१. बहिरात्मा २. अंतरात्मा ३. परमात्मा।
शरीर को आत्मा तथा अन्य पदार्थों और रागादि में अपनापन माननेवाला या शरीर और आत्मा को | एक माननेवाला जीव ही बहिरात्मा है, अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) है।
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