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“विषयासक्त चित्तवाले व्यक्ति के ऐसे कौन से गुण हैं, जो नष्ट नहीं हो जाते। अरे ! न उसमें विद्वत्ता रहती है, न मानवता; न ही अभिजात्यपना तथा न सत्य बोलना ही उसके जीवन में संभव है। कामासक्त रा | व्यक्ति के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं । यही स्थिति राजा सुमुख और वनमाला की हो रही थी।"
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दर्शनविशुद्धि से विशुद्ध, उत्कृष्ट तप, व्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्र के धारक जितेन्द्रिय मुनिराज | के दर्शन कर राजा सुमुख का मन मयूर हर्षातिरेक से नाच उठा। वह उत्साहित हो उठकर खड़ा हो गया । परि | मुनिराज के प्रति उमड़ी भक्तिभावना से परिणाम उज्ज्वल हो गये, मोह मंद पड़ गया। फलस्वरूप राजा वर्तन सुमुख ने वनमाला के साथ ही आगे बढ़कर पहले तो मुनिराज की भक्ति की, फिर तीन प्रदक्षिणायें | दीं और विनय सहित पड़गाहन कर प्रासुक जलधारा से मुनिराज के चरण धोए तथा अष्टद्रव्य से उनकी
राजा सुमुख और वनमाला के प्रेम प्रसंग के अन्तिम दृश्य का पटाक्षेप करते हुए कहा है - राजा सुमुख को वनमाला का वियोग असह्य था, अतः उसे वनमाला को उसके पतिगृह वापिस भेजने का | विचार ही नहीं आया । वनमाला भी अन्य रानियों में मुख्य स्थान पाकर एवं राजा का विशेष प्रेम पाकर वहीं रम गई ।
ठीक ही है - भवितव्यानुसार ही जीवों की बुद्धि, विचार एवं व्यवसाय होता है और निमित्त आदि बाह्य कारण भी वैसे ही मिल जाते हैं।
यदि राजा सुमुख अपनी भूल सुधारने हेतु वनमाला को अब उसके पतिगृह भेजना भी चाहता और वनमाला अपने पूर्व पति के पास जाना भी चाहती तो भी अब उसका पतिगृह लौटना संभव नहीं था; क्योंकि वनमाला के पति वीरक वैश्य ने संसार से विरक्त होकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी ।
जिनकी भली होनहार होती है; उनके परिणाम, परिस्थितियाँ और भावनायें बदलते देर नहीं लगती । | वीरक वैश्य तो विरागी होकर दिगम्बर मुनि दीक्षा लेकर आत्मसाधना में मग्न हो ही गये । 'वरधर्म' | नामक मुनिराज का आहार के निमित्त से सहसा राजा सुमुख के यहाँ शुभागमन होने से उनके दर्शन और | उपदेश का निमित्त पाकर वनमाला और सुमुख का भी जीवन बदल गया ।