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Teeगावात विनयधर्म पायवाटप
दिगम्बर ग्रन्थ 'तित्थयर भावणा' में विनय सम्पन्नता
- श्रीमती विजयलक्ष्मी मुंशी संकल्प तथा प्रयास द्वारा मानसिक विचारों व भावनाओं को भावित या वासित करने को भावना करते है। यह हृदय की अन्तरतम् गहराई से निकला वह भाव होता है जो दर्पण की भाँति जीवन के शाश्वत सत्य का दर्शन करा कर उचित मार्ग के अनुसरण की प्रेरणा देता है। विशिष्ट भावनाओ से चित्तशुद्धि, चित्तशुद्धि से आत्मशुद्धि, आत्मशुद्धि से कर्मनिर्जरा तथा कर्मनिर्जरा से रत्नत्रयी व सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है तथा तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है।
जैन दर्शन में तीर्थंकरपद की प्राप्ति के लिये भावनाओं का विशेष महत्त्व है। प्राचीन ग्रंथ षडखण्डागम, तत्त्वार्थसूत्र आदि में तथा इनके सभी प्रमुख टीकाकार ने तीर्थकर नामकर्म के आश्रव के लिये षोडश कारणों का प्रयोग किया है। तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयर णामगोदकम्मं बंधति (ध.पु. 8 सूत्र 40) वहाँ भावना शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। कालान्तर में भावना शब्द का प्रयोग कब हुआ यह शोध का विषय है।
वर्तमान में दिगम्बर सम्प्रदाय के परमपूज्य मुनिश्री श्री प्रणम्यसागरजी ने प्राकृत भाषा में 'तित्थयर भावणा' नामक ग्रंथ की रचना की । इस ग्रंथ में सोलह कारण भावनाओं पर 131 गाथाएँ है। पूज्यश्री ने हिन्दी पद्यानुवाद एवं शब्दशः अन्वयार्थ देकर सुधी पाठकों एवं मनीषियों के लिए सरल व सहज साहित्य उपलब्ध करने की महती कृपा की है।
तीर्थकर प्रकृति के बन्ध की सोलह भावनाओं में से एक विनय सम्पन्नता भावना का अपना विशिष्ट महत्त्व है। विनयधर्म का पालन करनेवाला सब कुछ पा जाता है।
सुदर्शनने थावच्चापुत्र से पूछा - भगव् ! आपके धर्म का मूल क्या है ?' थावच्चापुत्र ने कहा - हमारे धर्म का मूल विनय है।
दशवकालिक सूत्र में भी कहा गया है - एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमोसे मोक्खो। विनय से ऊर्जा, शांति, शक्ति, सकारात्मकता एवं सम्यक्दृष्टि प्राप्त होती है। तित्थयर भावणा में विनय सम्पन्न की आठ गाथाओं में विभिन्न गुणों और उनके धारक गुणी की सुन्दर व्याख्या मिलती है।
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पापापापातविनयधर्मबापावापाय गाथा नं. 1 : जो सो सम्मादिट्ठी विणओ भणिदो हि लक्खणो पढयो ।
दसण-णाण-चरितं रोचेदि जदो मोक्खमम्गम्मि ॥ सम्यग् द्रष्टिकी प्रथम लक्षण है विनय । नम्रता, समर्पण व विनय के साथ ज्ञान दर्शन व चारित्र में रुचि व श्रद्धा रखनेवाला धार्मिक ही रत्नत्रयी का आदर सम्मान व विनय करता है। इनके धारक की भक्ति व विनय करता है तथा उनमें रुचि रखता है। गुणों की पूजा करने वाले गुणों के धारक गुणी की भी विनय करता है क्योंकि गुण गुणी में ही होते है । गुणी है तो गुण है । रत्नत्रयी आत्मा का गुण होने से उनका विनय करता है । द्रव्य संग्रह में भी कहा है -
'रयणत्तयं ण बट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदब्बमि' (विशेष : मोक्षार्थी को नय का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि नय-ज्ञान से ही विनय की सही दिशा और मार्ग प्राप्त होता है। नय-ज्ञान विवाद को सुलझा देता है। व्यक्ति हठाग्रही नहीं होकर अनेकान्तवादी बन जाता है। उसके कषाय अल्पतर एवं मंदतर होने से वह मुक्ति पथ पर बढ़ जाता है। नय दृष्टि से विनय दो प्रकार का होता है। (अ) व्यवहार विनय (ब) निश्चय विनय ।
साधु परमेष्ठी का आदर सत्कार करना, नमन करना, नम्रता से बातचीत व अनुसरण करना आदि व्यवहार नय है। उनके सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र आदि गुणों का ध्यान व विनय करना तथा उनसे भावि होना निश्चय है। गाथा नं. 2: जेंसि बि य स्यणत्तं तेसिं णिचं य भावणाधम्मे ।
जें णिखेक्खा लाए तेसिं चरणेसु लम्गदे दिट्ठी ॥ रत्नत्रय धारी मुनि सदा धर्म में ही भावना रखते है । वे लोकैषणा से दूर निरपेक्ष होते है अर्थात् किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। सम्यकदृष्टि व धर्म की उपासना करने वाले व्यक्ति ऐसे ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के धारी धार्मिकों का विनय सहज भाव से, वगैर किसी प्रलोभन एवं चमत्कार की अपेक्षा करते हुए करते है।
(विशेष : विनय भावना अर्थात् विनय सम्पन्नता से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। विनय के तीन प्रकार है - (अ) ज्ञान विनय - आगमानुसार स्वाध्याय, शास्त्रों व पठन-पाठन की सामग्री का
यथोचित रख-रखाव, बहुश्रुत भक्ति व प्रवचन भक्ति ज्ञान विनय का
विषय है। (ब) दर्शन विनय-आगमानुसार पदाथों के प्रति श्रद्धा रखते हुए आठ मदस्थान का परिहार, सात व्यसन का त्याग, तीन मूढताओं एवं कषाय रहित होना, अरिहन्त
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