Book Title: Gyandhara 15 Vinay Dharm
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ पाबामावविनयधर्मापाय भक्ति, सिद्ध भक्ति, गुरु भक्ति, क्षण लव प्रतिबद्धता, लब्धि संवेग दर्शन विनय सम्पन्नता है। (क) चारित्र विनय-आवश्यक का पूर्ण पालन करना, शील व्रतों में निरचारिता तथा शक्ति व सामर्थ्यानुसार तप करना विनय चारित्र है। रत्नत्रयीधारी साधु व प्रवचन संयमी की वैयावृत्ति में उपयोग लगाना, प्रासुक आहार का दान, समाधि-धारण तथा प्रवचन वत्सलता ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विनय है। रत्नत्रयी को साधु व प्रवचन की संज्ञा प्राप्त होने से विनय सम्पन्नता एक होकर भी सोलह अवयवों से युक्त है।) गाथा नं. 3 : रपणत्तयं य धम्मो अपणो णेब अण्णदन्बस्स । तम्हा स धम्मिगाणं भत्तीए णिचमुबजुत्तो ॥ रत्नत्रयी आत्मा का गुण है। आत्मा का धर्म है। आत्मा के अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहीं और किसी भी द्रव्य में नहीं पाये जाते हैं। विनय भी आत्मा का गुण है। आत्मा का धर्म है। अपनी आत्मा को जानने वाला सबकी आत्मा को जानता है। विनयशील सबका सम्मान करता है। जो रत्नत्रयी के धारक है, विनयवान है, वे ही धार्मिक है। जो इन धार्मिकों की भक्ति करता है, आदर सत्कार करता है, उनमें रुचि व श्रद्धा रखता है, उनका विनय करता है, वह सदैव सुख पाता है। सम्यक्दृष्टि व्यक्ति उनका विनय करने में सदा तत्पर रहता है। गाथा नं.4: जो पुण दपेण जुदो कखदि विणयं हु मोकखमम्गिस्स । सो हि कसायाविट्टो कधं हवे विणअ जोग्गो खलु ॥ कुछ शिवपथगामी मानी-अभिमानी हो जाते है। वे चाहते हैं कि सम्यक्दृष्टि उनकी भक्ति, श्रद्धा एवं विनय करे। उन्हें आदर-सम्मान दें। सम्यक्ष्टि व्यक्ति ऐसे लोगों का सम्मान एवं विनय कैसे कर सकता है जो स्वयं मानी है, कषाय से पीड़ित है? विनय व भक्ति तो उनकी की जाती है जो कषाय रहित, निष्पाप एवं रत्नत्रयी से भावित हो जाते है। अविनयी सदा दुःख पाता है। विक्ती अविणीयस्स संपत्ति विणियस्स य (उत्तराध्ययन प्रथम अध्ययन सूत्र 21) गाथा नं. 5 : विणएण रहिदजीबो अजब धम्मं कदा ण पावेदि । तेण विणेह ण सोक्खं होदि कधं तं च परलोए ॥ विनयरहित व कषाययुक्त व्यक्ति कभी भी सुख नहीं पा सकता है क्योंकि विनय और भक्ति उसी व्यक्ति की की जाती है जिसमें मृदुता और ऋजुता हो। पापावापावविनयधर्मापायापार जिसमें आर्जव, मार्जव, समता, सहिष्णुता आदि धर्म के लक्षण नहीं होते है वह कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। उसका मन अभिमान से भारी रहता है। ऐसा व्यक्ति न तो इस लोक में सुखी रह सकता है और न ही उसका परलोक सुधरता है। दुःख का कारण वह स्वयं होता है। जिस प्रकार फल प्राप्त करने के लिये पहले वृक्ष लगाना पड़ता है उसी प्रकार आत्म सुख प्राप्त करने हेतु ऋजुता, मृदुता, समता, विनय सम्पन्नता आदि गुणों को धारण करना आवश्यक है। गाथा नं. 6 : आभ्यंतर तबो खलु विणओ तित्थंकरहिं उद्दिट्टो । हिम्मदमणेण जम्हा आदम्मि संलीणदा होदि ॥ तीर्थंकरों एवं गणधरों ने दो प्रकार के तप बताये है - बाह्य तप और आभ्मन्तर तप। आभ्यंतर तप के छः भेदों में एक तप विनय तप है जो विशिष्ट हैं, विनय तप है और तप धर्म है - 'विणवो बि तबो तबो वि धम्मो' (प्रश्नव्याकरण संवर द्वार ३ पाँचवी भावना) धार्मिक व्यक्ति अन्तरंग तप विनय की साधना - आराधना कर निर्मद व निराभिमानी हो जाता है। निर्विकार होकर वह आत्म-साधना में लीन हो जाता है। विनयशील व कषाय रहित होकर अपने कर्मो की निर्जरा कर लेता है। गाथा नं.7: कुलरुवणाणविसए संपण्णो वि अपसंसरहिदोय । पुजेसुणीचदिट्ठी विणयस्स संपण्णदा णाम ॥ प्रस्तुत श्लोक में विनय सम्पन्नता का अर्थ एवं विनीत के गुण बताये गये है। विनयशील कौन होता है ? विनयवान वही होता है जो उच्च कुल में जन्म लेकर, सुन्दर शरीर व रुप पाकर, राजा-महाराजा की तरह वैभवशाली तथा सम्यक्ज्ञान आदि गुणों से सम्पन्न होकर भी अहंकार नहीं करता, उन्नत नहीं होता, मदान्ध नहीं होता तथा पूज्य पुरुषों के समक्ष नयन और शीश झुकाकर भक्ति व श्रद्धा करता है। वह मन, वचन व काया से विनयवान व सम्यक्दृष्टि होता है। सुदर्शन सेठ की तरह ब्रह्मचारी एवं जयकुमार सेनापति की तरह क्षमावान होता है। गाथा नं. 8 : णाणं य पुज्जा य बलं य जादी बं य इड्ढी य तबो शरीरं । छिपणंति जे अट्ठविहं मदं ते णिम्माणगा जंति सिवस्स ठाणं ॥ मोक्षफल किसे प्राप्त होता है? मोक्ष का अधिकारी वहीं होता है जिसने आठ मद - ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर के अभिमान का परिहार कर दिया है। निर्मल व कषाय रहित हो गया है। गीतार्थ एवं विनय में कोविद .५८ .

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115