Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Moolchand Manager
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalay

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Page 7
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । नासा अग्रजु दृष्टि धर कर कर्म मल छीन ॥८॥ इह विधि मंगल करन” सब विधि मंगल हो । होत उदंगल दूर सब तम ज्यों भानु उद्योत ॥९॥ सप्रकार मंगलाचरण पूर्वक अपने इष्टदेवको नमस्कार कर RSS ज्ञानानन्द पूरित निन रस नाम शास्त्र ताका अनुभवन करूंगा । सो हे भव्य ! तूं सुन । कैसा है इष्ट देव, अरु कैसा है यह शास्त्र, अरु कैसा हूं मैं सोई कहिये है। देव दोय प्रकार हैअर्हन्त, सिद्ध । गुरू तीन प्रकार है-आचार्य, उपाध्याय, साधु । धर्म एक ही प्रकार है सो विशेषपने भिन्न भिन्न निरूपण करिये है । सो कैसे हैं अन्तदेव परमौदारिक शरीर ताविर्षे पुरुषाकार आत्मद्रव्य है । बहुरि नाश किया है घातिया कर्ममल माने अर धोया है आत्मासे कर्मरूपी मैल जाने, अरु अनन्त चतुष्टयको प्राप्त भया है, अरु निराकुलित अनुपम बाधारहित ज्ञान सुरस करि पूर्ण भरया है, अरु लोकालोकको प्रकाशक ज्ञेयरूप नाही परनवे है । एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावको धरे है, अरु शान्तिक रसकर अत्यन्त तृप्त हैं । क्षुधादि अठारह दोषनसौ रहित हैं । निर्मल (स्वच्छ) ज्ञानका पिंड हैं, जाका निर्मल स्वभाव विघे लोकालोकके चराचर पदार्थ स्वयमेव आन प्रतिविंव हुवे हैं। मानो भगवानका स्वभाव विर्षे पहिले ही ए पदार्थ तिष्ठै था। ताका निर्मल स्वभावकी महिमा वचन अगोचर है । बहुरि कैसे हैं अरहूंत देव जैसे सांचा विर्षे रूपा धातुका पिंड निरमापिऐ है । तैसे अरहंत देव चैतन्य धातुका पिंड परम औदारिक शरीर वि तिष्ठे

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