Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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परिशिष्टम्-१९ श्रीमद्देवचन्द्रमुनिकृता ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
खण्ड - ४
[दुहा दान शील तप भावसु, मीलियां जिम सुखदाय ; तिम आतमगुण साधवा, चोथो खंड कहाय । १ वसु सहज अणजाणता, जन छे अज्ञ अनेक ; आनंदी भवभय विना, दोय तीन के एक । २ उपशम मुनिने मन रह्यो, ध्यान विना थिर नांहि ; ध्यान थिरे शम थिर अछे, भेद नहीं इणमांहि । ३ शम थिर थाये ध्यानथी, कर्म कोटि कटि जाय ; धरे ध्यान समवंत मुनि, तजि विभाव पर्याय । ४ भवदव दाह शम्या विना, ध्यान खीरनिधि जेम ; ध्यान सिद्ध साधक प्रवर, दुरति काष्ट दव तेम । ५ अशुद्ध ध्यान दुख ध्यान तजि, मुक्ति बीज भजि ध्यान; के मूरख माने इसो , नरक दायने ध्यान?। ६ काम क्रोध पीडित करे, रिपु हणवाने ध्यान; चाहे कूडां शास्त्र कहि, निज पूजा अभिमान । ७ उभयमार्गच्युत पापमति, ये अशुचि उपदेश; ध्यानी शिवधारक करे, शुद्ध ग्रंथ आदेश । ८ चिंतारोध ते ध्यान छे, अपर भावना जाण; अनुप्रेक्षा चिंतन अरथ, लख्यो शास्त्र सहि नाण । ९ शुद्ध अशुद्ध दु भेदथी, ध्यान मोक्ष भव थान; निज ध्यानी निराग मुनि, ध्यावे शुद्ध ज ध्यान । १० अज्ञानि रागादियुत, ध्यावे ध्यान अशुद्ध; आर्त रोद्र कुध्यान छे, धर्म शुक्ल दो शुद्ध । ११
ढाल-१ राग - गौतमस्वामी समोसा... एहनी] आर्त रौद्र तजो तुम्हे, धर्म शुक्ल धरि ध्यान रे; चउविध एहिज ध्यान छे, प्रथम ध्यान दुख थान रे । आर्त्तक १ प्रथम अनिष्ट संयोग छे, बीजो इष्ट वियोगो रे; राग प्रकोप तीजो दाखव्यो, तुर्य निदान संयोगो रे । आर्त्तः २ दव वन विष मातंग हरि, दुर्जन रिपु वली रायो रे; धन तन घातक देखीने, पहिलो आरत थायो रे । आर्त्त० ३ उपज्या चर थिर भावथी, स्मृत दिठां वली दृष्टो रे; जे मन क्लेशने अनुभवे, तेही ज आर्त अनिष्टो रे । आर्त्तः ४
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