Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
View full book text
________________
परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२४९ आत्माका पुरुषाकाररूपसे विचार करता है और अन्य लोग भी अनुमानसे जान सकें उसे बाह्य रूपातीतध्यान विचार व चिन्तवनसे अतीत मात्र धर्मध्यान कहते हैं। सूत्रोंके अर्थकी गवेषणा (विचार ज्ञाताद्रष्टा रूपसे ज्ञानका भवन है (दे० उन उनके व मनन), व्रतोंको दृढ रखना, शील गुणोमें अनुराग लक्षण व विशेष) तिहाँ पहिले तीन ध्यान तो रखना, हाथ पर मुँह कायका परिस्पंदन और वचन धर्मध्यानमें गर्भित हैं और चौथा ध्यान पूर्ण निर्विकल्प व्यापारका बन्द करना, जंभाई, जंभाई के उद्गार प्रगट होनेसे शुक्लध्यान रूप है (दे० शुक्लध्यान) इस प्रकार करना, छींकना तथा प्राण अपानका उद्रेक आदि सब संस्थानविचयधर्मध्यानका विषय बहुत व्यापक है। क्रियाओंका त्याग करना बाह्य धर्मध्यान है। जिसे (८.) बाह्य व आध्यात्मिकध्यानका लक्षण ।
केवल अपना आत्मा ही जान सके उसे आध्यात्मिक
कहते हैं। वह आज्ञाविचय आदिके भेदसे दस ह. पु./५६/३६-३८ लक्षणं द्विविधं तस्य
प्रकारका है। बाह्याध्यात्मिकभेदतः। सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता ।३६। जृम्भाजृम्भाक्षुतोद्
[२.] धर्मध्यानमें सम्यक्त्व व भावों आदिका गारप्राणापानादिमन्दता। निभृतात्मव्रतात्मत्वं तत्र
निर्देश बाह्यं प्रकीर्तितम् ।३७। दशधाऽऽध्यात्मिकं (१.) धर्मध्यान में विषय परिवर्तन निर्देश धर्म्यमपायविचयादिकम्... ।३८। बाह्य और
प्र.सा/ता.वृ./१९६/२६२/९ अथ ध्यानसन्तानः अभ्यन्तरके भेदसे धर्म्यध्यानका लक्षण दो प्रकारका
कथ्यते-यत्रान्तर्मुहूर्त्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरहै । शास्त्रके अर्थ की खोज करना, शीलव्रतका
मन्तर्मुहूर्तपर्यन्ते तत्त्वचिन्ता, पुनरप्यन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं पालन करना, गुणोंके समूहमें अनुराग रखना,
ध्यानम् । पुनरपि तत: चिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणअंगडाई-जमुहाई-छींक-डकार और श्वासोच्छवासमें
स्थानवदन्तर्मुहूर्तेऽन्तमुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति मन्दता होना, शरीरको निश्चल रखना तथा आत्माको
स ध्यानसंतानो भण्यते । ध्यानको सन्तान बताते हैं, मतोंसे मुक्त करना यह धर्मध्यानका बाह्य लक्षण
जहाँ अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, तदनन्तर है। और आभ्यन्तरलक्षण अपायविचय आदिके
अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तत्त्वचिन्ता होती है । पुनः भेदसे दस प्रकारका है ।।
अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, पुनः तत्त्वचिन्ता होती चा. सा./१७२/३ धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थानकी भाँति द्विप्रकारम्। तत्र परानुमेयं बाह्य सूत्रार्थगवेषणं अन्तर्मुहूर्तमें परावर्तन होता रहता है, उसे ही ध्यानकी दृढव्रतशीलगुणानुरागानिभृतकरचरणवदन- सन्तान कहते हैं। (चा. सा./२०३/२)। कायपरिस्पन्दवारव्यापारं जृम्भजृम्भोद्गारक्षप
(२.) धर्मध्यानमें सम्भव भाव व लेश्याएँ थुप्राणापानोद्रेकादिविरमणलक्षणं भवति। स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम्, तद्दशविधम् । बाह्य और
ध १३/५,४,२६/५३/७६ होंति कम्मविसुद्धाओ आभ्यन्तरके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है। जिसे
लेस्साओ पीयपउमसुक्काओ । धम्मज्झाणो-वगयस्स तिव्वमंदादिभेयाओ । ५३ । धर्मध्यानको प्राप्त
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org