Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 287
________________ २७० ध्यानशतकम व ध्यानफल रूप) चार अंगवाला ध्यान अप्रशस्त २१/२७); (चा.सा. १६७/३ था १७२/२) (ज्ञा. और प्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है। (म. पु./ सा./२५/२०) (ज्ञा./२५/२०) २१/२७), (ज्ञा./२५/१७) (४.) अप्रशस्त प्रशस्त व शुद्ध ध्यानोंके लक्षण ज्ञा./३/२७-२८ संक्षेपरुचिभिः सूत्रात्तनिरूप्या मू. आ./६८१-६८२ परिवारइडिसक्कारपूयणत्मनिश्चयात्। असण-पाणहेऊ वा। लयणसयणासणं भत्तपाविधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा ।२७। णकामट्ठहेऊ वा ।६८१। आज्ञाणिद्देसमाणतत्र पुण्याशयः पूर्वस्तद्विपक्षोऽशुभाशयः।। कित्तीवण्णणपहावणगुणटुं । झाणमिणघसत्थं शुद्धोपयोगसंज्ञो य: स तृतीय: प्रकीर्तितः ।२८। मणसंकप्पो दु विसत्थो ।६८२। कितने ही संक्षेपरुचिवालोंने तीन प्रकारका ध्यान ज्ञा./३/२९-३१ पुण्याशयवशाजातं शुद्धलेश्यामाना है, क्योंकि, जीवका आशय तीन प्रकारका वलम्बनात्। ही होता है ।२७। उन तीनोंमें प्रथम तो पुण्यरूप चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ।२९। शुभआशय है और दूसरा उसका विपक्षी पापरूप पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् । आशय है और तीसरा शुद्धोपयोग नामा आशय कषायाजायतेऽजस्रमसद्धयानं शरीरिणाम् ।३०। क्षीणे रागादिसन्ताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि। २. आर्त-रौद्रादि चार भेद तथा इनका अप्रशस्त य: स्वरूपोपलम्भः स्यात्, स शुद्धाख्य प्रकीर्तितः व प्रशस्तमें अन्तर्भाव ।३१। त. सू./९/२८ आर्त, रौद्र, धर्म्यशुक्लानि ।२८। १. पत्रशिष्यादिके लिए, हाथी घोडेके लिए, ध्यान चार प्रकारका है- आर्त, रौद्र, धर्म्य और आदरपूजनके लिए, भोजनपानके लिए, खुदी हुई शुक्ल । (भ.आ.मू./१६९९-१७००) (म.पु./२१/ पर्वतकी जगहके लिए, शयन-आसन-भक्ति व २८); (ज्ञा. सा./१०) (त. अनु./३४); प्राणोंके लिए, मैथुनकी इच्छाके लिए, आज्ञानिर्देश (अन.ध./७/१०३/७२७)। प्रमाणिकता-कीर्ति प्रभावना व गुणविस्तार के लिएमू. आ./३९४ अटुं च रुद्दसहियं दोण्णिवि इन सभी अभिप्रायोंके लिए यदि कायोत्सर्ग करे झाणाणि अप्पसत्थाणि। धम्मं सुक्कं च दुवे तो मनका वह संकल्प अशुभ ध्यान है / मू. पसत्थझाणाणि णेयाणि।३९४ । आर्तध्यान और आ./ जीवोंके पापरूप आशयके वशसे तथा मोहरौद्रध्यान ये दो तो अप्रशस्त हैं और धर्म्यशुक्ल ये मिथ्यात्व-कषाय और तत्त्वोंके अयथार्थरूप विभ्रमसे दो ध्यान प्रशस्त हैं । (रा.वा./९/२८/४/६२७/ उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त व असमीचीन है ३३) (ध. १३/५,४,२६/७०/११ में केवल ।३०। (ज्ञा./२५/१९) (और भी दे० अपध्यान)। प्रशस्तध्यानके ही दो भेदोंका निर्देश है); (म.पु. २. पुण्यरूप आशयके वशसे तथा शुद्धलेश्याके Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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