Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
View full book text
________________
परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२६९ निरन्तर रूपसे ज्ञानका रहना ध्यान है, और वह द्धत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्तुधर्मत्वसिद्धेश्च। वास्तवमें क्रमरूप ही है अक्रम नहीं। अथवा नायं भावसाधनः, निरोधनं निरोध २. ध्यानका निश्चय लक्षण-आत्मस्थित आत्मा
इति । किं तर्हि ? कर्म-साधनः 'निरुध्यत
इति निरोधः'। चिन्ता चासो निरोधश्च पं.का./मू./१४६ जस्स ण विदि रागो दोसो
चिन्तानिरोध इति। एतदुक्तं भवति-ज्ञानमेवामोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो
परिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमानं ध्यानमिति। प्रश्नझाणमओ जायए अगणी। जिसे मोह और रागद्वेष
यदि चिन्ताके निरोधका नाम ध्यान है और निरोध नहीं हैं तथा मन वचन कायरूप योगोंके प्रति
अभावस्वरूप होता है, इसलिए गधेके सींगके समान उपेक्षा है, उसे शुभाशुभको जलानेवाली ध्यानमय
ध्यान असत् ठहरता है? उत्तर- यह कोई दोष अग्नि प्रगट होती है।
नहीं है, क्योंकि अन्य चिन्ताकी निवृत्तिकी अपेक्षा त.अनु./७४ स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्याये- वह असत् कहा जाता है और अपने विषयरूप स्वस्मै स्वतो यतः। षट्कारकमयस्तस्माद्- प्रवृत्ति होनेके कारण वह सत् कहा जाता है। ध्यानमात्मैव निश्चयात् १७४। यूँकि आत्मा अपने क्योंकि अभाव भावान्तर स्वभाव होता है (तुच्छाभाव आत्माको, अपने आत्मामें, अपने आत्माके द्वारा, नहीं)। अभाव वस्तुका धर्म है यह वात सपक्षसत्त्व अपने आत्माके लिए, अपने-अपने आत्महेतुसे ध्याता और विपक्षव्यावृत्ति इत्यादि हेतुके अंग आदिके है, इसलिए कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान । द्वारा सिद्ध होती है (दे० सप्तभंगी) अथवा यह
और अधिकरण ऐसे षट्कारकरूप परिणत आत्मा निरोध शब्द 'निरोधनं निरोधः'- इस प्रकार भावसाधन ही निश्चयनयकी दृष्टि से ध्यानस्वरूप है। नहीं है, तो क्या है? 'निरुध्यत निरोधः' जो रोका अन.ध./१/११४/११७ इष्टानिष्टार्थमोहादि- जाता है, इस प्रकार कर्मसाधन है। चिन्ताका जो च्छेदाश्चेतः स्थिर ततः। ध्यानं रत्नत्रयं
निरोध वह चिन्तानिरोध है। आशय यह है कि तस्मान्मोक्षस्तत: मुखम् । इष्टानिष्ट बुद्धिके मूल
निश्चल अग्निशिखाके समान निश्चलरूपसे अभावसमान मोहका छेद हो जानेसे चित्त स्थिर हो जाता है। ज्ञान ही ध्यान है। (रा.वा./९/२७/१६-१७/६२६/ उस चित्त की स्थितताको ध्यान कहते हैं।
२४) (विशेष दे० एकाग्रचिन्तानिरोध) (२.) एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षणके विषयमें शंका दे० अनुभव/२/३ अन्य ध्येयोंसे शून्य होता हुआ
भी स्वसंवेदनकी अपेक्षा शून्य नहीं है। स.सि./९/२७/४४५/१ चिन्ताया निरोधो यदि ध्यानं, निरोधश्चाभावः, तेन ध्यानमसत्खर- (३.) ध्यानके भेद विषाणवत् स्यात् । नैष दोषः अन्यचिन्ता- १. प्रशस्त व अप्रशस्तकी अपेक्षा सामान्य भेद निवृत्त्यपेक्षयाऽसदिति चोच्यते, स्वविषया
चा.सा./१६७/२ तदेतञ्चतुरङ्गध्यानमप्रशस्तकारप्रवृत्तेः सदिति च; अभावस्य भावान्तरत्वा
प्रशस्तभेदेन द्विविधम् । वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org