Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 307
________________ २९० निर्मल आत्मा केवली हो जाता है । ४७। आचारसार/७७-८३ जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमणात् प्रीतिः शरीरेऽपि च । जोषं वापि धारयत्वविरतानन्दात्मनः स्वात्मनश्चिन्तायामपि यातुमिच्छति मनोदोषैः समं पञ्चताम् ॥७७॥ यत्र न ध्यानं ध्येयं ध्यातारौ नैव चिन्तनं किमपि । न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुष्ठु भावये ।७८ । शून्यध्यानप्रविष्टो योगी स्वसद्भावसम्पन्नः । परमानन्दस्थितो भृतावस्थः स्फुटं भवति ॥७९॥ तत्किमयो ह्यात्मा अवशेषालम्बनैः परिमुक्तः । उक्तः स तेन शून्यो ज्ञानिभिर्न सर्वथा शून्यः १८० । यावद्विकल्पः कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य । तावन्न शून्यं ध्यानं चिन्ता वा भावनाथवा । ८१ । सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट जाते हैं, इन्द्रियोंके विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीरमें प्रीति भी समाप्त हो जाती है व वचन भी मौन धारण कर लेता है। आत्माकी आनन्दभूति के कालमें मनके दोषों सहित स्वात्मविषयक चिन्ता भी शान्त होने लगती है ।७७ । जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न ध्याता है, न कुछ चिन्तवन है, न धारणा के विकल्प हैं, ऐसे शून्यको भली प्रकार भाना चाहिए ।७८ । शून्यध्यानमें प्रविष्ट योगी स्व स्वभावसे सम्पन्न, परमानन्दमें स्थित तथा प्रगट भरितावस्थावत् होता है । ७९ । ज्ञानदर्शन चारित्र इन तीनों मयी आत्मा निश्चयसे अवशेष समस्त अवलम्वनोंसे मुक्त हो जाता है। इसलिए वह शून्य कहलाता है, सर्वथा शून्य नहीं |८०| ध्यानयुक्त योगीको जब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम् वह शून्यध्यान नहीं, वह या तो चिन्ता है या भावना । (५.) पृथक्त्ववितर्कवीचारका स्वरूप भ.आ./मू./१८८०, १८८२ दव्वाई अणेयाई ताहिं वि जोगेहिं जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तंत्ति तं भणिया १८८० । अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो । तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं । १८८२ । इस पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानमें अनेक द्रव्य विषय होते हैं और इन विषयोंका विचार करते समय उपशान्तमोह मुनि इन मनवचन- काययोगोंका परिवर्तन करता है । १८८० । इस ध्यानमें अर्थके वाचक शब्द संक्रमण तथा योगोंका संक्रमण होता है। ऐसे वीचारों (संक्रमणोंका) का सद्भाव होनेसे इसे सवीचार कहते हैं। अनेक द्रव्योंका ज्ञान करानेवाला जो शब्द श्रुत वाक्य उससे यह ध्यान उत्पन्न होता है, इसलिए इस ध्यानका पृथक्त्ववितर्कसवीचार ऐसा नाम है | १८८२ । त. सू. / ९-४१-४४ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे । ४१ । वितर्कः श्रुतम् । ४३ । वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः । ४४ । पहलेके दो ध्यान एक आश्रयवाले, सवितर्क, और सवीचार होते हैं । ४१ । वितर्कका अर्थ श्रुत है ।४३। अर्थ, व्यंजन और योगकी संकान्ति वीचार है । ४४ । भावार्थपृथक्त्व अर्थात् भेद रूपसे वितर्क श्रुतका वीचार अर्थात् संक्रान्ति जिस ध्यानमें होती है वह पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका ध्यान है । (ध. १३/ ५,४,२६/७७/११); (क.पा. १/१,१७/३१२/ ३४४ / ६) (ज्ञा. / ४२/१३,२०-२२) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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