Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 316
________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २९९ तिनके प्रतिमास रुधिरका स्राव होता है, उसकी परिहादि कमेण तहा जोगजलं ज्झाणजलणेण शंका बनी रहती है इसलिए स्त्रीके ध्यानकी सिद्धि १७४। तह बादरतणुविसयं जोगविसं नहीं है।२६। ज्झाणमंतब-लजुत्तो । अमुभावम्मि णिरंभदि (६.) चारों ध्यानोंका फल अवणेदि तदो वि जिणवेजो ७६। जिस प्रकार नाली द्वारा जलका क्रमश: अभाव होता है या १. पृथक्त्ववितर्कवीचार तपे हुए लोहेके पात्रमें क्रमश: जलका अभाव होता ध. १३/५,४,२६/७९/१ एवं संवर- है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी णिजरामरसुहफलं एदम्हादो णिव्वुइगमणाणु- जलका क्रमश: नाश होता है ।७४। ध्यानरूपी वलंभादो। इस प्रकार इस ध्यानके फलस्वरूप संवर, मन्त्रके बलसे युक्त हुआ वह सयोगकेवली जिनरूपी निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे वैद्य बादरशरीरविषयक योगविषको पहले रोकता मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती । है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है ॥७६ । चा. सा./२०६/२ स्वर्गापवर्गगतिफलसंवर्त- ४. सम्मुच्छिनक्रियानिवृत्ति नीयमिति। यह ध्यान स्वर्ग और मोक्षके सुखको ध. १३/५,४,२६/८८/१ सेलेसियअद्धाए देनेवाला है। ज्झीणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धि दे. धर्मध्यान/३/५/२ मोहनीयकर्मकी सर्वोपशमना गच्छदि । शैलेशी अवस्थाके कालके क्षीण होनेपर होने पर उसमें स्थिति रखना पृथक्त्ववितर्कविचार सब कोसे मुक्त हुआ यह जीव एक समयमें नामक शुक्लध्यानका फल है। सिद्धिको प्राप्त होता है। ज्ञा/४२/२० अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थ्यात्स [४.] शंका-समाधान प्रशान्तधीः। मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे (१.) संक्रान्ति रहते ध्यान कैसे सम्भव है ।२०। इस अचिन्त्य प्रभाववाले ध्यानके सामर्थ्यसे जिसका चित्त शान्त हो गया है, ऐसा ध्यानी मुनि स.सि./९/४४/४५५/१३ की टिप्पणीक्षणभरमें मोहनीयकर्मका मूलसे नाश करता है संक्रान्तौ सत्यां कथं ध्यानमिति चेत् अथवा उसका उपशम करता है ।२०। ध्यानसन्तानमपि ध्यानमुच्यते इति न दोषः । प्रश्न- संक्रान्तिके होनेपर ध्यान कैसे सम्भव है? २. एकत्ववितर्कअवीचार उत्तर- ध्यानकी सन्ततिको भी ध्यान कहा जाता दे. धर्मध्यान/३/५/५ तीन घातीकर्मोंका नाश है इसमें कोई दोष नहीं है। करना एकत्ववितर्कअवीचार शुक्लध्यानका फल है। रा.वा./९/२७/१९,२१/६२६-६२७/३५ वा। ३. सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती अथमेतत्- एकप्रवचनेऽपि तस्यानिष्टस्य ध. १३/५,४,२६/गा. ७४,७५/८६,८७ प्रसङ्गतुल्य इति; तन्नः किं कारणम्। आभिमुख्ये तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। सति पौनःपुन्येनापि प्रवृत्तिज्ञापनार्थत्वात् । अग्रं Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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