Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 312
________________ परिशिष्टम् - २२, जैनेन्द्र सिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् शेषावगतेः । अब तीसरे शुक्लध्यानका कथन करते है तथा क्रियाका अर्थ योग है वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है, और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है, और सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है । (द्र.सं./ टी./४८/२०४/८) यहाँ केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है, इसलिए यह अवितर्क है और अर्थांतरकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है, अथवा व्यंजन और योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अविचार है। प्रश्न- इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है। उत्तर- इनके अवलंबनके विना ही युगपत् त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थोका ज्ञान होता है । (८.) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिका स्वरूप भ.आ./मू./१८८८, २१२३ अवियक्कमवीचारं अणियट्टिमकिरियं च सीलेसिं । ज्झाणं णिरुद्धयोगं अपच्छिम उत्तमं सुकं । १८८८ । देहतियपबंधपरिमोक्खत्थं केवली अजोगी सो । उवयादि समुच्छिण्णकिरियं तु झाणं अपडिवादी | २१२३ । अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितर्करहित है, वीचाररहित है, अनिवृत्ति है, क्रियारहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है । (ध. १३/५,४,२६/गा. ७७/८७) औदारिक शरीर, तैजस व कार्मण शरीर इन तीन शरीरोंका बन्ध नाश करनेके लिए वे अयोगिकेवली भगवान् समुच्छिन्नक्रियानिवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्या हैं (त.सा./७/५३-५४ ) । Jain Education International 2010_02 २९५ स.सि./ ९४४/४५७ /६ ततस्तदनन्तरं समुच्छिन्न- क्रियानिवृत्तिध्यानमारभते । समुच्छिन्नप्राणा- पानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्व प्रदेशपरिस्पन्द- क्रियाव्यापारत्वात् समुच्छिन्ननिवृत्तीत्युच्यते । इसके बाद चौथे समुच्छिन्नक्रियानिवृति ध्यानको प्रारम्भ करते हैं। इसमें प्राणापानके प्रचाररूप क्रियाका तथा सब प्रकारके काययोग वचनयोग और मनोयोगकें द्वारा होनेवाली आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप क्रिया का उच्छेद हो जानेसे इसे समुच्छिन्नक्रिया-निवृत्ति ध्यान कहते हैं (रा.वा./ ९/४४/१/६३५/११), (चा.सा./२०९/३) । ध. १३/५,४,२६/८७/६ समुच्छित्रक्रिया योगो यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम् । समुच्छिन्नक्रियं च अप्रतिपाति च समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । श्रुतरहितत्वात् अवितर्कम् । जीवप्रदेशपरिस्पन्दाभावादवीचारम् अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्त्यभावाद्वा । जिसमें क्रिया अर्थात् योग सब प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय है और समुच्छिन्न क्रिया होकर जो अप्रतिपाती है वह समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यान है । यह श्रुतज्ञानसे रहित होनेके कारण अवितर्क है, जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दका अभाव होनेसे अविचार है, या अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्तिके अभाव होनेसे अविचार है । द्र.सं./टी./४८/२०४ /९ विशेषेणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद् व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद् व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञं चतुर्थशुक्लध्यानम् । विशेष रूपसे उपरत अर्थात् दूर हो गयी है क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति हो वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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