Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 293
________________ २७६ ध्यानशतकम् ध. १३/५,४,२६/२८-२९/६८ किचिद्दिट्ठि- करनेवाला मुनि अन्य सबका शरण छोडकर उस मुपावत्तइत्तु ज्झेये णिरुद्धट्ठीओ । अप्पाणम्मि परमात्मस्वरूपमें ऐसा लीन होता है, कि ध्याता सदिं संधित्तुं संसारमोक्खटुं ।२८। पञ्चाहरित्तु और ध्यान इन दोनोंके भेदका अभाव होकर विसएहि इंदियाणं मणं च तेहिंतो अप्पाणम्मि ध्येयस्वरूपसे एकताको प्राप्त हो जाता है ।३७ । मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि ।२९। १. जिसकी । जब आत्मा परमात्माके ध्यानमें लीन होता है, तब दृष्टि ध्येय (दे० ध्येय) में रुकी हुई है, वह बाह्य एकीकरण कहा है, सो यह एकीकरण अनन्यशरण विषयसे अपनी दृष्टिको कुछ क्षणके लिए हटाकर है। वह तद्गुण है अर्थात् परमात्माके ही अनन्त संसारमें मुक्त होनेके लिए अपनी स्मृतिको अपनी ज्ञानादि गुणरूप है, और स्वभावसे आत्मा है । आत्मामें लगावे ।२८। इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर इस प्रकार तादात्म्यरूपसे स्थित होता है ।३९ । और मनको भी विषयोंसे दूरकर, समाधिपूर्वक उस ४. अपनेमें जोडता हुआ भी, अविद्यावासनासे मनको अपनी आत्मामें लगावे ।२९। (त.अनु./ विवश हुआ चित्त जब स्थिरताको धारण नहीं ९४-९५) करता ।२। तो साक्षात् वस्तुओंके स्वरूपका ज्ञा./३०/५ प्रत्याहृतं पुनः स्वस्थं सर्वोपाधि- यथास्थित तत्काल साक्षात् करनेके लिए तथा विवर्जितम्। चेतः समत्वमापनं स्वस्मिन्नेव लयं आत्माको विशुद्धि करनेके लिए निरन्तर वस्तुके व्रजेत् ।५। २. प्रत्याहार (विषयोंसे हटाकर मनको ___ धर्मका चिन्तवन करता हुआ उसे स्थिर करता ललाट आदि पर धारण करना-दे० 'प्रत्याहार') से ठहराया हुआ मन समस्त उपाधि अर्थात् विशेष दे० ध्येय-अनेक प्रकारके ध्येयोंका चिन्तवन रागादिकरूप विकल्पोंसे रहित समभावको प्राप्त होकर करता है, अनेक प्रकारकी भावनाएँ भाता है तथा आत्मामें ही लयको प्राप्त होता है। धारणाएँ धारता है। ज्ञा./३१/३७,३९ अनन्यशरणीभूय स तस्मिंल्लीयते (५.) अर्हतादिके चिन्तवन द्वारा ध्यानकी विधि तथा। ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा ज्ञा./४०/१७-२० वदन्ति योगिनो ध्यानं व्रजेत्।३७। अनन्यशरणस्तद्धि तत्संली चित्तमेव-मनाकुलम्। कथं शिवत्वमापन्नमात्मानं नैकमानसः। तद्गुणस्तत्स्वभावात्मा स संस्म-रेन्मुनिः ।१७। विवेच्य तद्गुणग्रामं तत्स्वरूपं तादात्म्याञ्च संवसन् ।३९। निरूप्य च। अनन्तशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं ज्ञा./३३/२-३ अविद्यावासनावेशविशेष- व्रजेत् ।१८। तद्गुणग्रामसंपूर्ण तत्स्वभावैकविवशात्मनाम्। योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेतः भावितः। कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परकुरुते स्थितिम्।२। साक्षात्कर्तुमतः क्षिप्रं । मात्मनि ।१९। द्वयोर्गुणैर्मतं साम्यं व्यक्तिशक्ति विश्वतत्त्वं यथास्थितम्। विशुद्धिं चात्मनः । व्यपेक्षया। विशुद्धतरयोः स्वात्मतत्त्वयोः परमागमे शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत् ।। ३. वह ध्यान ।२०। प्रश्न- चित्तके क्षोभरहित होनेको ध्यान है। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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