Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतकम् द्रव्य कहा गया है। उन द्रव्यभेदोंमें सबसे अधिक भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि । ताओ य ध्यानके योग्य पुरुषरूप आतमा है ।११७ । ज्ञाताके णाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ ।२३। - जिसने होने पर ही, ज्ञेय ध्येयताको प्राप्त होता है, इसलिए पहले उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है, वह पुरुष ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम है ।११८। ही भावनाओं द्वारा ध्यानकी योग्यताको प्राप्त होता [५.] भावरूप ध्येय निर्देश
है। और वे भावनाएँ ज्ञान-दर्शन-चारित्र और
वैराग्यसे उत्पन्न होती हैं। (म.पु./२१/९४-९५) (१.) भावरूप ध्येयका लक्षण
नोट- (सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रकी भावनाएँत.अनु./१००,१३२ भाव. स्याद्गुणपर्ययौ।१००।
दे० वह वह नाम और वैराग्यभावनाएँ - दे० भावध्येयं पुनर्येयसंनिभध्यानपर्ययः ।१३२। गुण
अनुप्रेक्षा) व पर्याय दोनों भावरूप ध्येय है ।१००। ध्येयके सदृश्य ध्यानकी पर्याय भावध्येयरूपसे परिगृहीत है
(४.) ध्यानमें भाने योग्य कुछ भावनाएँ ।१३२।
मो.पा./मू./८१ उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण (२.) सभी द्रव्योंके यथावस्थित गुणपर्याय
अहमेगागी। ध्येय है
इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ।८१। ध. १३/५,४,२६/७० बारसअणुपेक्खाओ
ऊर्ध्व, मध्य और अधो इन तीनों लोकोंमें, मेरा उवसमसेडिखवगसेडिचडविहाणं तेवीसवग्गणाओ
कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ । ऐसी पंचपरियट्टाणि छिदिअणुभागपयडिपदेसादि सव्वं
भावना करनेसे योगी शाश्वत स्थानको प्राप्त करता पि झेयं होदि त्ति दट्ठव्वं। बारह अनुप्रेक्षाएँ,
है। (लि.प./९/३५) उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणीपर आरोहणविधि, तेईस र.क.श्रा./१०४ वर्गणाएँ, पाँच परिवर्तन, स्थिति, अनुभाग प्रकृति अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम्।
और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य हैं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायं तु सामायिके ।१०४। त.अनु./११६ अर्थव्यञ्जनपर्यायाः मूर्तामूर्ता गुणाश्च मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुःखमय और ये। यत्र द्रव्ये यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मेरत् पररूप संसारमें निवास करता हूँ और मोक्ष इससे ।११६। जो अर्थ तथा व्यंजनपर्यायें और मूर्तीक विपरीत है, इस प्रकार सामायिकमें ध्यान करना तथा अमूर्तीक गुण जिस द्रव्यमें जैसे अवस्थित चाहिए । हैं, उनको वहाँ उसी रूपमें ध्याता चिन्तवन करे। इ. उ./२७ एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी (३.) रत्नत्रय व वैराग्यकी भावनाएँ ध्येय हैं योगीन्द्रगोचरः। बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः ध. १३/५,४,२६/२३/६८ पव्वकयब्भासो सर्वऽपि सर्वथा ।२७।
मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी
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