Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 302
________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २८५ योगीन्द्रोंके ज्ञानका विषय हूँ । इनके सिवाय जितने ज्ञा,/३१/१-१६ स्वविभ्रमसमुद्भूतै रागाद्यभी स्त्री-धन आदि संयोगीभाव हैं वे सब मुझसे तुलबन्धनैः। बद्धो विडम्बित: कालमनन्तं सर्वथा भिन्न हैं। (सामायिक पाठ/अ./२६), जन्मदुर्गमे ।२। परमात्मा परंज्योतिर्जगत्श्रेष्ठोऽपि (स.सा./ता.वृ./१८७/२५७/१४ पर उद्धृत) वञ्चितः। आपातमात्ररम्यैस्तै-विषयैरन्तनीरसैः।८। ति.प./९/२४-६५ अहमेको खल सदो मम शक्तया गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिनः। दसणणाप्पगो सदारूवी णवि अस्थि मज्झि एतावाननयोर्भदः शक्तिव्यक्तिस्वभावतः ।१०। अहं किंचिवि अण्णं परणाणुमेत्तं पि ।२४। णाहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुषः। न देवः होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । किन्तु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रमः ।१२। इदि जो झायदि झाणे सो मुञ्चइ अठ्ठकम्मेहिं ___ अनन्तवीर्यविज्ञानगानन्दात्मकोऽप्यहम्। किं न ।२६। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ।१३। मैंने अपने कारणं तेसिं। एवं खलु जो भाओ सो पावइ ही विभ्रमसे उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबन्धनोंसे सासयं ठाणं ।२८। णाहं होमि परेसिं ण मे बंधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसाररूप दुर्गम मार्गमें परे णस्थि मज्झमिह किं पि । एवं खल जो विडम्बनारूप होकर विपरीताचरण किया ।२। यद्यपि भानइ सो पानइ सनकल्लाणं ।३४।। मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्श्रेष्ठ केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावो सहमडओ। है, महान् है, तो भी वर्तमान देखनेमात्रको रमणीक केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए वाणी और अन्तमें नीरस ऐसे इन्द्रियोंके विषयोंसे ठगाया ।४६। मैं निश्चयसे सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक गया हूं ।८। अनन्त चतुष्ट्यादि गुणसमूह मेरे तो और अरूपी हूँ । मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ शक्तिकी अपेक्षा विद्यमान है और अर्हत सिद्धोंमें नहीं है ।२४। मैं न परपदार्थोंका हूँ, और न वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनोंमें भेद है परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हूँ १०। न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यंच हूँ और न ।२६। न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और मनुष्य या देव ही हूँ किन्तु सिद्धस्वरूप हूँ । ये न उनका कारण ही हूँ ।२८। (प्र.सा./१६०); सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाकसे उत्पन्न हुई हैं ।१२। (आराधनासार/१०१)। न मैं परपदार्थोंका हूँ, और पटाका और मैं अनन्तवीर्य, अनन्तविज्ञान, अनन्तदर्शन व न परपदार्थ मेरे हैं। यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है । के अनन्तआनन्दस्वरूप हूँ । इस कारण क्या विषवृक्षके ।३४। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभावसे समान इन कर्म-शत्रुओंको जडमूलसे न उखाई ।१३। युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीवको विचार करना स.सा./ता.वृ./२८५/३६५/१३ बंधस्य विनाशार्थं चाहिए ।४६। (न.च.व./३९१-३९७, ४०४- विशेषभावनामाह - सहजशुद्ध ज्ञाना४०८); (सामायिक पाठ/अ./२४); (ज्ञा./१८/ नन्दैकस्वभावोऽहम्, निर्विकल्पोऽहम्, उदासी२९); (त.अनु./१४७-१५९) नोऽहं, निरञ्जननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञाना Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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