Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 295
________________ २७८ ध्यानशतकम (४.) अर्हतको ध्याता हुआ स्वयं अर्हत होता उक्तं च, ग्रन्थान्तरे- आत्यन्तिकस्वभावो त्थानन्तज्ञानसुखः पुमान्। परमात्मा विपः ज्ञा./३९/४१-४३ तद्गुणग्रामसंलीनमानसस्तद्ग कन्तुरहो माहात्म्यमात्मनः ।१०।...तदेवं यदिह ताशयः। तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं जगति शरीरविशेषसमवेतं किमपि सामर्थ्यमुप्रपद्यते।४१। यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं पलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चयः । प्रजायते। तदात्मानमसौ ज्ञानी सर्वज्ञीभूतमीक्षते । आत्मप्रवृत्तिपरम्परोत्पादितत्वाद्वि ग्रहग्रहणस्येति ।४२। एष देव: स सर्वज्ञः सोऽहं तद्रूपतां गतः। ।१७। विद्वानोंने इस आत्माको ही शिव, गरुड तस्मात्स एव नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते व काम कहा है, क्योंकि यह आत्मा ही अणिमा ।४३। उस परमात्मामें मन लगानेसे उसके ही महिमा आदि अमूल्य गुणरूपी रत्नोंका समूह है गुणोंमें लीन होकर, उसमें हि चित्तको प्रवेश करके ।९। अन्य ग्रन्थमें भी कहा है- अहो! आत्माका उसी भावसे भावित योगी उसीकी तन्मयताको प्राप्त माहात्म्य कैसा है, अविनश्वर स्वभावसे उत्पन्न होता है ।४१। जब अभ्यासके वशसे उस मनिके अनन्तज्ञान व सुखस्वरूप यह आत्मा ही शिव, उस सर्वज्ञके स्वरूपसे तन्मयता उत्पन्न होती है गरुड व काम है। (आत्मा ही निश्चयसे परमात्म उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्माको (शिव) व्यपदेशका धारक होता है ।१०। सर्वज्ञ स्वरूप देखता है ।४२। उस समय वह गारुडीविद्याको जाननेके कारण गारुडगी नामको ऐसा मानता है, कि यह वही सर्वज्ञदेव है, वही अवगाहन करनेवाला यह आत्मा ही गरुड नाम तत्स्वरूपताको प्राप्त हुआ मैं हूँ, इस कारण वही पाता है ।१५। आत्मा ही कामकी संज्ञाको धारण विश्वदर्शी मैं हूँ, अन्य मैं नहीं हूँ ।४३। करनेवाला है ।१६।) इस कारण शिव गरुड व कामरूपसे इस जगत्में शरीरके साथ मिली हुई त. अनु./१९० परिणमते येनात्मा भावेन स जो कुछ सामर्थ्य हम देखते हैं, वह सब आत्माकी तेन तन्मयो भवति। अर्हद्ध्यानाविष्टो भावार्हन् ही है। क्योंकि शरीरको ग्रहण करने में आत्माकी स्यात्स्वयं तस्मात्। जो आत्मा जिस भावरूप प्रवृत्ति ही परम्परा हेतु है।१७। परिणमन करता है, वह उस भावके साथ तन्मय होता है (और भी देखो शीर्षक नं.१) अतः त. अनु./१३५-१३६ यदा ध्यानबलाद्धयाता अर्हद्ध्यानसे व्याप्त आत्मा स्वयं भावअर्हत होता शून्यीकृतस्वविग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्तादृक् है ।१९०। सम्पद्यते स्वयम्।१३५। तदा तथाविधध्यान संवित्तिः ध्वस्तकल्पनः। स एव परमात्मा (५.) गरुड आदि तत्त्वोंको ध्याता हुआ आत्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथ: ।१३६ । जिस समय ध्यातापुरुष ही स्वयं उन रूप होता है ध्यानके बलसे अपने शरीरको शून्य बनाकर ज्ञा./२१/९-१७ शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव ध्येयस्वरूपमें आविष्ट या प्रविष्ट हो जानेसे अपनेको कीर्तितः। अणिमादिगुणानर्घ्यरत्नवार्धिर्बुधैर्मतः ।९। तत्सदृश बना लेता है, उस समय उस प्रकारको ध्यान Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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