Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 289
________________ २७२ ध्यानशतकम् किं कारणम् । 'इन्द्रियोपघातप्रसङ्गात्। ध्यान जो जिस कर्मका स्वामी अथवा जिस कर्मके करनेमें अन्तर्मुहूत तक होता है। इससे कालकी अवधि समर्थ देव है उसके ध्यानसे व्याप्त चित्त हुआ कर दी गयी। इससे ऊपर एकाग्रचिन्ता दुर्धर है। ध्याता उस देवतारूप होकर अपना वांछित अर्थ प्रश्न- दिन या महीने भर तक भी तो ध्यान सिद्ध करता है। रहेनेकी बात सुनी जाती है? उत्तर- यह बात । दे० धर्मध्यान/६/८ (एकाग्रतारूप तन्मयताके कारण ठीक नहीं है, क्योंकि, इतने कालतक एक ही जिस-जिस पदार्थका चिन्तवन जीव करता है, उस ध्यान रहनेमें इन्द्रियों का उपघात ही हो जायेगा । समय वह अर्थात् उसका ज्ञान तदाकार हो जाता (३.) ध्यान व ज्ञान आदिमें कंथचित् भेदाभेद है। -(दे० आगे ध्यान/४)। म. पु./२१/१५-१६ (५.) ध्यानसे अनेकों लौकिक प्रयोजनोंकी सिद्धि यद्यपि ज्ञानपर्यायो ध्यानाख्यो ध्येयगोचरः। ज्ञा./३८/श्लो. सारार्थ- अष्टपत्र कमलपर स्थापित तथाप्येकानसन्दष्टो धत्ते बोधादि वान्यताम्।१५।। स्फुरायमान आत्मा व णमो अहँताणंके आठ हर्षामर्षादिवत् सोऽयं चिद्धर्मोऽप्यवबोधितः।। अक्षरोंको प्रत्येक दिशाके सम्मुख होकर क्रमसे प्रकाशते विभिन्नात्मा कथंचित् स्तिमिता आठ रात्रि पर्यन्त प्रतिदिन ११०० वार जपनेसे त्मकः।१६। सिंह आदि क्रूर जन्तु भी अपना गर्व छोड देते हैं।९५-९९। आठ रात्रियाँ व्यतीत हो जाने पर इस यद्यपि ध्यान ज्ञानकी ही पर्याय है और वह ध्येयको कमलके पत्रों पर वर्तनेवाले अक्षरोंको अनुक्रमसे विषय करनेवाला होता है। तथापि सहवर्ती होनेके निरूपण करके देखें। तत्पश्चात् यदि प्रणव सहित कारण वह ध्यान-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप उसी मन्त्रको ध्यावै तो समस्त मनोवाञ्छित सिद्ध व्यवहारको भी धारण कर लेता है ।१५। परन्तु हों और यदि प्रणव (ॐ) से वर्जित ध्यावे तो जिस प्रकार चित्त धर्मरूपसे जाने गये हर्ष व क्रोधादि मुक्ति प्राप्त करे ११००-१०२। (इसी प्रकार अनेक भिन्नभिन्न रूपसे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार प्रकारके मन्त्रोंका ध्यान करनेसे, राजादिका विनाश, अन्तःकरणका संकोच करनेरूप ध्यानभी चैतन्यके पापका नाश, भोगोंकी प्राप्ति तथा मोक्ष प्राप्ति तक धर्मोसे कथंचित् भिन्न है ।१६। भी होती है।१०३-११२। (४.) ध्यान द्वारा कार्यसिद्धिका सिद्धान्त ज्ञा./४०/२ . त. अनु./२०० मन्त्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगातुमुद्यत: सुरासुरनरवातं यो यत्कर्मप्रभुर्देवस्तद्ध्यानाविष्टमात्मनः। क्षोभयत्यखिलं क्षणात् ।२। यदि ध्यानी मुनि ध्याता तदात्मको भूत्वा साधयत्यात्मवाञ्छितम् मन्त्र मण्डल मुद्रादि प्रयोगोंसे ध्यान करनेमें उद्यत 1२००। हो तो समस्त सुर असुर और मनुष्योंके समूहको क्षणमात्रमें क्षोभित कर सकता है। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350