Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 279
________________ २६२ ध्यानशतकम् पं. ध./उ./८६१-८६५ अस्ति ज्ञानोपयोगस्य [१.] प्रशस्त ध्यातामें ज्ञान सम्बन्धी नियम व स्वभावमहिमोदयः। आत्मपरोभयाकारभावकश्च स्पष्टीकरण प्रदीपवत् १७६१। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव त.सू./९/३७ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ।३७ । ज्ञेयमवैति च। तथा मूर्तानमूर्तीश्च धर्मादीनवगच्छति ।८६२। स्वस्मिन्नेवोपयुक्तो वा स.सि./९/३७/४५३/४ आद्ये शुक्लध्याने नोपयुक्तः स एव हि। परस्मिन्नुपयुक्तो वा नोपयुक्तः पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन इत्यर्थः। (नेतरस्य स एव हि ।८६३। स्वस्मिन्ने-वोपयुक्तोऽपि (रा.वा.) चशब्देन धर्म्यमपि समुञ्चीयते। ... नोत्कर्षाय स वस्तुतः। उपयुक्तः परत्रापि शुक्लध्यानके भेदोंमेंसे आदिके दो शुक्लध्यान (पृथक्त्व नापकर्षाय तत्त्वतः ।८६४। तस्मात् व एकत्ववितर्कवीचार) पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवलीको स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया । मासीन होते हैं अन्यके नहीं। सूत्रमें दिये गये 'च' शब्दसे महाप्राज्ञः सार्थमर्थमवैहि भोः ।८६५। ... धर्म्यध्यानका भी समुच्चय होता है। (अर्थात् शुक्लध्यान निजमहिमासे ही ज्ञान प्रदीपवत् स्व, पर व उभयका तो पूर्वविदको ही होता है परन्तु धर्मध्यान पूर्वविदको युगपत् अवभासक है ।८६१। वह किसी प्रकारका भी होता है और अल्पश्रुतको भी।) (रा.वा./९/ भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने ३७/१/६३२/३०) विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म-अधर्मादि द्रव्योंको ध. १३/५,४,२६/६४/६ चउदस्सपुव्वहरो वा भी जानता है ।८६२। अतः केवलनिजात्मोपयोगी (दस) णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगमअथवा परपदार्थोपयोगी ही न होकर निश्चयसे वह णवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो ।.... चोद्दस-दसउभयविषयोपयोगी है ।८६३। उस सम्यग्दृष्टिको स्वमें णवपुव्वेहिं विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थाउपयुक्त होनेसे कुछ उत्कर्ष (विशेष संवर निर्जरा) वगमोवलंभादो। ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं और परमें उपयुक्त होनेसे कुछ अपकर्ष (बन्ध) बीजबुद्धिमुणिमो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाहोता हो, ऐसा नहीं है ।८६४। इसलिए परपदार्थोंके भावादो।... ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, साथ अभिन्नता देखकर तुम दुःखी मत होओ। पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स प्रयोजनभूत अर्थको समझो । और भी देखे, ध्यान/ सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेण४/५ (अहँतका ध्यान वास्तवमें तद्गुणपूर्ण वपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाआत्माका ध्यान ही है) । भावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडिउवसमसेडि४. ध्याता णमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस-दसधर्म व शुक्लध्यानोंको ध्यानेवाले योगीको ध्याता कहते णवपुव्वहरा पुण धम्मसुक्कज्झाणं दोण्णं पि हैं। उसीकी विशेषताओंका परिचय यहाँ दिया गया सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसिं चेव एत्थ णिदेसो कदो। ... जो चौदह पूर्वोको धारण Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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