Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२५१ (रा.वा./९/३६/१३/६३२/१८),(ज्ञा./२८/२८)। नाहीं । मिथ्यादृष्टिके शुभध्यान शुभबन्धहीका कारण २. श्रेणी चढनेसे पूर्व धर्मध्यान होता है और है। अनादि ते कई बार ऐसा ध्यानकरि शुभकर्म दोनों श्रेणियोंमें आदिके दो शुक्लध्यान होते हैं। बान्धे हैं, परन्तु निर्जरा बिना मोक्षमार्ग नाहीं । (रा.वा./९/३७/२/६३३/३)।
तातें मिथ्यादृष्टिका ध्यान मोक्षमार्गमें सराह्य ध. १३/५,४,२६/७४/१० असंजदसम्मदिट्ठि
नाहीं । (र.क.श्रा/पं.सदासुखदास/पृ. ३१६)। संजदासंजदपमत्तसंजदअप्पमत्तसंजदअपुव्व- म.पु./२१/१५५का भाषाकारकृत भावार्थ-धर्मध्यानको संजद अणियट्टिसंजद सुहुमसांपराइयखव- धारण करनेके लिए कमसे कम सम्यग्दृष्टि अवश्य गोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति होना चाहिए। मन्दकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंको जो जिणोवएसादो। ३. असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते हैं। प्रमत्तसंयत, अप्रमतसंयत, क्षपक व उपशामक २. प्रमत्तजनोंको ध्यान कैसे सम्भव है ? अपूर्व-करणसंयत, क्षपक व उपशामक अनिवृत्तिकरण संयत, क्षपक व उपशामक
रा.वा./९/३६/१३/६३२/१७ कश्चिदाहसूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंको धर्मध्यानकी प्रवृत्ति होती
धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्यैवेति; तन; किं कारणम् ? है ऐसा जिनदेवका उपदेश है। (इससे जाना जाता
पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसङ्गात् । असंयतसम्यग्दृष्टिहै कि धर्मध्यान कषाय सहित जीवोंको होता है
संयतासंयतप्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते और शुक्लध्यान उपशान्त या क्षीणकषाय जीवोंको)
सम्यक्त्वप्रभवत्वात्। प्रश्न-धर्मध्यान तो
अप्रमत्तसंयतोंको ही होता है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, (स.सि./९/३७/४५३/४); (रा.वा./९/३७/२/
ऐसा माननेसे पहलेके गुणस्थानोंमें धर्मध्यानका निषेध ६३२/३२)
प्राप्त होता है। परन्तु सम्यक्त्वके प्रभावसे असंयत (५.) धर्मध्यानके स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएँ
सम्यग्दृष्टि, संयता-संयत और प्रमत्तसंयतजनोंमें भी १. मिथ्यादृष्टियोंको भी तो धर्मध्यान देखा जाता धर्मध्यान होना इष्ट है।
३. कषायरहित जीवोंमें ही ध्यान मानना चाहिए रा.वा./हिं/१/३६/७४७ प्रश्न-मिथ्यादृष्टि अन्यमती ।
रा.वा./९/३६/१४/६३२/२१ कश्चिदाह तथा भद्रपरिणामी व्रत, शील, संयमादि तथा जीवनिकी
उपशान्तक्षीणकषाययोश्च धर्मध्यानं भवति न दयाका अभिप्रायकरि तथा भगवानकी सामान्य भक्ति
पूर्वेषामेवेति; तन्न, किं कारणम्? शुक्लाभावकरि धर्मबुद्धि तै चित्तकू एकाग्रकरि चिन्तवन करे
प्रसङ्गात् । उपशान्तक्षीणकषाययो र्हि है, तिनिके शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाही ? .
शुक्लध्यानमिष्यते तस्याभाव: प्रसज्येत। प्रश्नउत्तर- इहाँ मोक्षमार्गका प्रकरण है। तातै जिस
उपशान्त व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानोंमें धर्मध्यान ध्यान तै कर्मकी निर्जरा होय सो ही यहाँ गिणिये
होता, इससे पहिले गुणस्थानोमें बिलकुल नही होता? है । सो सम्यग्दृष्टि बिना कर्मकी निर्जरा होय उत्तर- नही, क्योंकि, ऐसा माननेसे शुक्लध्यानके
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