Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२५७ प. प्र./टी./१/९७/९२/४ यद्यन्तर्मुहूर्तपरमात्म- सागरचक्रवर्ती, रामचन्द्र तथा पाण्डव, युधिष्ठिर, ध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि इदानीमस्माकं तद्ध्यानं अर्जुन और भीम आदि मोक्षको गये हैं, उन्होनें कुर्वाणानां किं न भवति । परिहारमाह यादृशं भी पूर्वभवमें अभेदरत्नत्रयको भावनासे अपने तेषां प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति संसारकी स्थितिको घटा लिया था। इस कारण तादृशमिदानीं नास्तीति। प्रश्न-यदि अन्तर्मुहूर्त मात्र उसी भवमें मोक्ष गये। उसी भवमें सबको मोक्ष पर, त्मध्यानसे मोक्ष होता है तो ध्यान करनेवाले हो जाता हो, ऐसा नियम नहीं है। (और भी भी हमें आज वह क्यों नही होता । उत्तर-जिस देखो/७/१२)। प्रकारका शुक्लध्यान प्रथम संहननवाले जीवोंको होता (३.) पंचमकालमें अध्यात्मध्यानका कथंचित् है वैसा अब नहीं होता।
सद्भाव व असद्भाव (२.) यदि इसकालमें मोक्ष नहीं तो ध्यान न.च. ७/३४३ मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव करनेसे क्या प्रयोजन
वीयरायसामग्गी । तम्हा सुद्धचरित्ता पंचमकाले द्र. सं/टी./५७/२३३/११ अथ मतं-मोक्षार्थं वि देसदो अस्थि ।३४३। सरागकी भाँति ध्यानं क्रियते न चाद्यकाले मोक्षोऽस्ति ध्यानेन वीतरागताकी सामग्री जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट किं प्रयोजनम् । नैवं अद्यकालेऽपि परम्परया होती है। इसलिए पंचमकालमें भी शुद्धचारित्र कहा मोक्षोऽस्ति । कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्म- गया है। (और भी दे० अनुभव/५/२)। भावनाबलेन संसारस्थितिं स्तोकं कृत्वा देवलोकं
नि.सा./ता. वृ./१५४/क. २६४ असारे संसारे गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभावे रत्नत्रयभावनां
कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्नयं लब्ध्वा शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । येऽपि
जिन नाथस्य भवति । अतोऽध्यात्मं ध्यानं भरतसगररामपाण्डवादयो मोक्षं गतास्तेऽपि
कथमिह भवन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थितिं स्तोकं
भवभयहरं स्वीकृतमिदृग्। ।२६४। असारसंसारमें, कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः। तद्भवे सर्वेषां मोक्षो
पापसे भरपूर कलिकालका विलास होनेपर, इस भवतीति नियमो नास्ति। प्रश्न-मोक्षके लिए ध्यान
निर्दोष जिननाथके मार्गमें मुक्ति नहीं है। इसलिए किया जाता है, और मोक्ष इस पंचमकालमें होता
इसकालमें अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है। इसलिए नहीं है, इस कारण ध्यानके करनेसे क्या प्रयोजन? ।
निर्मल बुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी उत्तर-इस पंचमकालमें भी परम्परासे मोक्ष है ।।
इस निजात्मश्रद्धाको अंगीकृत करते हैं। प्रश्न-सो कैसे है? उत्तर- ध्यानी पुरुष निज शुद्धात्माकी भावना के बलसे संसारकी स्थितिको (४.) परन्तु इस कालमें ध्यानका सर्वथा अभाव अल्प करके स्वर्गमें जाता है। वहाँसे मनुष्यभवमें .
नहीं है । आकर रत्नत्रयको भावनाको प्राप्त होकर शीघ्र ही मो.पा./मू./७६ भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं मोक्षको चला जाता है। जो भरतचक्रवर्ती, हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ
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