Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतकम्
२४२ र.सा./भू./९७ पावारंभणिवित्ती, पुण्णारंभ- मू. आ./६७८-६८० दसणणाणचरित्ते उवओगे पउत्तिकरणं पि। णाण धम्मज्झाणं जिणभणियं संजमे विउस्सगो। पचक्खाणे करणे पणिधाणे तह सव्वजीवाणं ।९७। पापकार्यकी निवृत्ति और य समिदीसु ।६७८। विजाचरणमहव्वदसमाधिपुण्यकार्यों से प्रवृत्तिका मूलकारण एक सम्यग्ज्ञान गुणबंभचेरछक्काए। खमणिग्गह अजवमद्दवमुत्ती है, इसलिए मुमुक्षु जीवो के लिए सम्यग्ज्ञान विणए च सद्दहणे ।६७९। एवंगुणो महत्थो (जिनागमाभ्यास-मा.९८) ही धर्मध्यान श्री जिनेन्द्रदेवने मणसंकप्पो पसत्थ वीसत्थो। सकप्पोत्ति वियाणह कहा है।
जिणसासणसम्मदं सव्वं ।६८०। दर्शन-ज्ञानभ.आ./मू./१७१० आलंबणं च वायण पुच्छण
चारित्रमें, उपयोगमें, संयममें, कायोत्सर्गमें, शुभयोगमें, परिवट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविसुताओ
धर्मध्यानमें, समितिमें, द्वादशांगमें, भिक्षाशुद्धिमें, सव्वाणुपेहाओ ।१७१० । वाचना, पुच्छना, अनुप्रेक्षा,
महाव्रतोमें, संन्यासमें, गुणमें, ब्रह्मचर्यमें, पृथिवी आदि आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्यायके भेद हैं ।
छह काय जीवोंकी रक्षामें, क्षमा, इन्द्रियनिग्रहमें, ये भेद धर्मध्यानके आधार भी हैं । इस धर्मध्यानके
आर्जवमें, मार्दवमें, सब परिग्रह त्यागमें, विनयमें, साथ अनुप्रेक्षाओंका अविरोध है। (भ. आ./मू./
श्रद्धानमें; इन सबमें जो मनका परिणाम है, वह १८७५/१६८०); (ध. १३/५,४,२६/गा. २१/
कर्मक्षयका कारण है, सबके विश्वास योग्य है। इस ६७); (त. अनु./८१)
प्रकार जिनशासनमें माना गया सब संकल्प है; उसको
तुम शुभ ध्यान जानो । ज्ञा. सा./१७ जीवादयो ये पदार्थाः ध्यातव्याः ते यथास्थिताः चैव। धर्मध्यानं भणितं रागद्वेषौ ४. परमेष्ठी आदिको भक्ति प्रमुच्य...।१७। रागद्वेषको त्यागकर अर्थात् द्र.सं./टी./४८/२०५/३ पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादितसाम्यभावसे जीवादि पदार्थोका, वे जैसे-जैसे अपने दनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानं भवति। स्वरूपमें स्थित है, वैसे-वैसे ध्यान या चिन्तवन पंच परमेष्ठीकी भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल करना धर्मध्यान कहा गया है ।
शुभानुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि) ज्ञा./३/२९ पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्या
बहिरंग धर्मध्यान होता है। (पं.का./ता.व./१५०/ वलम्बनात्।
२१७/१६)। चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ।२९। (२.) धर्मध्यानके चिह्न पुण्यरूप आशयके वशसे तथा शुद्धलेश्याके ध. १३/५, ४,२६/गा. ५४-५५/७६ अवलम्बनसे और वस्तुके यथार्थ स्वरूप चिन्तवनसे आगमउवदेसणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं । उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। (ज्ञा./२५/ भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तल्लिंगं ।५४। १८)।
जिण-साहु-गुणुक्कित्तण-पसंसण-विणय३. रत्नत्रय व संयम आदिमें चित्तको लगाना दाणसंपण्णा । सुदसीलसंजमरदा धम्मज्झाणे
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