Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 261
________________ ध्यानशतकम २४४ धर्म्यम् ।३६। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान, इनकी विचारणाके लिए मनको एकाग्र करना धर्म्यध्यान है। (भ. आ./मू./१७०८/१५३६); (मू.आ./३९८); (ज्ञा./३३/५); (ध. १३/ ५,४,२६/७०/१२); (म. पु./२१/१३४) (ज्ञा./ ३३/५)च (त. अनु./९८); (द्र. सं/टी./४८/ २०२/३); (भा. पा./टी/११९/२६९/२४); (का.अ./टी./४८०/३६६/४)। रा.वा./१/७/१४/४०/१६ धर्मध्यानंदशविधम् । चा. सा./१७२/४ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकम् : तद्दशविधम् अपायविचयम्, उपायविचयम्, जीवविचयम्, अजीवविचयम्, विपाकविचयम्, विरागविचयं, भवविचयम्, संस्थानविचयम्, आज्ञाविचयं, हेतुविचयं चेति। आध्यात्मिक धर्मध्यान दश प्रकारका है- अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय । (ह.पु./५६/३८/५०), (भा. पा. टी. ११९/२७०/२) २. निश्चय व्यवहार या बाह्य व आध्यात्मिक आदि भेद चा. सा./१७२/३ धर्मध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम्।-धर्म्यध्यान बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे दो प्रकारका है। (ह. पु./५६/३६)। त. अनु./४७-४९,९६ मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा ।४७। ध्यानान्यपि त्रिधा ।४८। उत्तमम्...जघन्यम्...मध्यमम् ।४९। निश्चयाद् व्यवहाराच ध्यानं द्विविधमागमे... १९६। मुख्य और उपचार के भेदसे धर्म्यध्यान दो प्रकारका है।४७। अथवा उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य के भेदसे तीन प्रकारका है।४९। अथवा निश्चय व व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है ।।९६ । (५.) आज्ञाविचय आदि ध्यानोंके लक्षण १. अजीवविचय ह. पु./५६/४४ द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम्। स्वभावचिन्तनं धर्नामजीवविचयं मतम् ।।४४।। धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्योंके स्वभावका चिन्तवन करना, सो अजीवविचय नामका धर्म्यध्यान है ।४४।. २-३ अपाय व उपायविचय भ.आ./मू./१७१२/१५४४ कल्लाणपावगाण उपाये विचिणादि जिणमदमुवेश्च । विचिणादि व अवाए जीवाण सुभे य असुभे य ।१७१२। जिनमतको प्राप्त कर कल्याण करनेवाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है, अथवा जीवोंके जो शुभाशुभ भाव होते है, उनसे अपायका चिन्तवन करता है। (मू.आ./४००); (ध.१३/५,४,२६/गा.४०/७२) प.१३/५.४,२६/गा.३९/७२ रागद्दोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं। इहपरलोगावए ज्झाएजो वजपरिवज्जी ।३९। पापका त्याग करनेवाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवोंके इहलोक और परलोकसे अपायका चिन्तवन करे। स.सि./९/३६/४४९/११ जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखा मोक्षार्थिन सम्यङ्मार्गापरिज्ञानाद् सुदूरमेवापयान्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयाः। अथवा मिथ्यादर्शन Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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