Book Title: Dhyanashatakam Part 2
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२३३ दारधनादेविप्रयोगे तत्संप्रयोगाय सङ्कल्पश्चिन्ता- मनोज्ञवस्तुविध्वंसे मनस्तत्सङ्गमार्थिभिः।। प्रबन्धो द्वितीयमार्त्तमवगन्तव्यम् । मनोज्ञ अर्थात् क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद् द्वितीयातस्य लक्षणम् ।।३१।। अपने इष्ट पुत्र, स्त्री और धनादिकके वियोग होनेपर जो राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री. कटम्ब, मित्र, सौभाग्य. उसकी प्राप्तिके लिए संकल्प अर्थात् निरन्तर चिन्ता ।
भोगादिके नाश होनेपर तथा चितको प्रीति उत्पन्न करना दूसरा आर्त्तध्यान जानना चाहिए (रा.वा./
करनेवाले सुन्दर स्त्रियोंके विषयोंका प्रध्वंस होते ९/३१/१/६२८)(म.पु. २९/३२,३४)
हुए सन्त्रास, पीडा, भ्रम, शोक, मोहके कारण चा. सा. १६९/१ मनोज्ञं नाम धनधान्य- निरन्तर खेद रूप होना, सो जीवों का इष्टवियोगजनित हिरण्यसुवर्णवस्तुवाहनशयनासनाक्चन्द- आर्त्तध्यान है, और यह ध्यान पापका स्थान है नवनितादिसुखसाधनं मे स्यादिति गर्द्धनम् । ।।२९।। देखे, सुने, अनुभव किये, मनको रंजायमान मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसङ्कल्पाध्यवसानं करनेवाले पूर्वोक्त पदार्थोका वियोग होनेसे जो मनको तृतीयातम् ।। धन, धान्य, चाँदी, सुवर्ण, सवारी, खेद हो वह भी दूसरा आर्तध्यान है ।।३०।। शय्या, आसन, माला, चन्दन और स्त्री आदि अपने मनकी प्यारी वस्तुके विध्वंश होनेपर पुन: सुखोंके साधनको मनोज्ञ कहते हैं । ये मनोज्ञपदार्थ उसकी प्राप्ति के लिए जो क्लेशरूप होना सो दूसरे मेरे हों इस प्रकार चिन्तवन करना, मनोज्ञपदार्थके । आर्तध्यान का लक्षण है। वियोग होनेपर उनके उत्पन्न होनेका बार-बार चिन्तन
नि.सा./ता वृ.८९ स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद् करना आर्त्तध्यान है।
मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्का. अ./सू.४७४ मणहर-विसय-विओगे-कह
समुपजातमार्त्तध्यानम्। .. स्वदेशके त्यागसे, द्रव्यके तं वावेगि इदि वियप्पो जो । संतावेण पयट्टो नाशसे. मित्रजनके विदेशगमनसे, कमनीय कामिनीके सोचिय अट्ट हवे झाणं ।।४७४।। वियोगसे उत्पन्न होनेवाला आर्त्तध्यान है। मनोहर विषयका वियोग होने पर 'कैसे इसे प्राप्त ६. वेदनासम्बन्धीआर्तध्यानका लक्षण करूं' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःखसे प्रवृत्ति
त.सू. ९/३२ वेदनायाश्च ।।३२।। वेदनाके होने करता है यह भी आर्त्तध्यान है।
पर (अर्थात् वातादि विकारजनित शारीरिकवेदनाके ज्ञा.२५/२९-३१ राज्यैश्वर्यकलत्रबान्धवसुहृत्सौ
होने पर) उसे दूर करनेकी सतत चिन्ता करना भाग्यभोगात्ययचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वं
तीसरा आर्त्तध्यान है । सभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं तत्स्या
ज्ञा. २५/३२-३३ कासश्वासभगन्दरदिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलङ्कास्पदम् ।।२९।।
जलोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लेष्ममरुत्प्रदृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थेश्चित्तरञ्जकैः।
कोपजनितैः रोगैः शरीरान्तकैः। स्यात्सत्त्वप्रबलैः वियोगे यन्मनः खिनं स्यादा तद्वितीय
प्रतिक्षणभवैर्यद्या-कुलत्वं नृणाम् तद्रोगा-मनिन्दितैः कम् ।।३०।।
प्रकटितं दुर्वार-दुःखाकरम् ।।३२।। स्वल्पानामपि
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