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धवला पुस्तक 1
जिय-मोहिंधण-जलणो अण्णाण - तमंधयार- दिणयरओ। कम्म-मल-कलुस-पुसओ जिण - वयणमिवोवही सुंहयो ||50|| वह जिनागम जीव के मोहरूपी ईंधन को भस्म करने के लिये अग्नि के समान है, अज्ञान रूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य के समान है, कर्ममल अर्थात् द्रव्यकर्म और कर्मकलुष अर्थात् भावकर्म को मार्जन करने वाला समुद्र के समान है और परम सुभग है । 15011
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अण्णाण- तिमिर-हरणं-सुभविय - हिययारविंद-जोहणयं । उज्जोइय-सयल-वहं सिद्धंत - दिवायरं भजह ॥51॥ अज्ञानरूपी अन्धकार को हरण करने वाले, भव्य जीवों के हृदयरूपी कमल को विकसित करने वाले और संपूर्ण जीवों के लिये पथ अर्थात् मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाले ऐसे सिद्धान्त रूपी दिवाकर को भजो।।51।।
विपुलाचलादि की विशेषता
पंच- सेल - पुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे । गाणा- दुम-समाइणे देव - दाणव - वंदिदे ।। 52।। पंचशैलपुर में (पंचपहाड़ी अर्थात् पाँच पर्वतों से शोभायमान राजगृह नगर के पास) रमणीक, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त, देव तथा दानवों से वन्दित और सर्व पर्वतों में उत्तम ऐसे विपुलाचल नामके पर्वत के ऊपर भगवान् महावीर ने भव्यजीवों को अर्थ का उपदेश दिया अर्थात् दिव्यध्वनि के द्वारा जीवादि पदार्थों और मोक्षमार्ग आदि का उपदेश दिया।।52।।
ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः । विपुलगिरिनर्नैऋत्यामुभै त्रिकोणी स्थितौ तत्र ।। 53।। पूर्व दिशा में चौकोर आकार वाला ऋषिगिरि नामका पर्वत है।