Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani

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Page 12
________________ (१०) बेदना जो मुझ उपशमें, तो लेउ संजम भार । एम कहेता वेदन गई, में प्रतलीधुं हर्ष अपार श्रे, ७ ॥ हे भूपते ! आप भी समझे होंगे कि में अनाथ कैसे होगया. और रोगों से वा दुःख से बचाने वाला कौन है ? इसलिये मैंने मन में धर्म का शरण लिया कि यदि जो रोग मिटे तो साधु हो जाऊं ! इतना विचार से ही शांति होने लगी और मैं साधु हुआ हूं।' कर जोडी राजा गुणस्तवे, धन धन मुनि अरणगार। श्रेणिक समकीत पामीयो, वांदी पहोंतो नगर मझार श्रे, ८॥ मुनि अनाथी गावतां, टूटे कर्मनी क्रोड । गणि समय सुंदर एहना, पाय वांदेरे बेकर जोड ॥६॥ मुनिकी बात सुनकर धर्म बोध पाकर हाथजोड़ राजाश्रेणिक शहरमें आया समय सुंदर कहते हैं कि ऐसे मुनि के गुण गाने से करोड़ों कष्ट दूर होते हैं, मैं भी उनके दोनों चरण में नमस्कार करता हूं। इसलिये साधु रूपवान् स्वपर का अधिक उपकारक है. श्रावक का तीसरा गुण। प्रकृति से सौभ्य दृष्टि (शांति प्रकृति) जो पुण्यात्मा इस लोक में जन्म से ही शांत मुद्रा वाला होता है वो अपन आत्मा को वार वार क्रोध से नहीं जलाता न दूसरों को सताने की इच्छा करता, इस लिये वो जहां जाता है. वहीं दूसरों को शांति देकर आप भी अंत में प्रशंसनीय हो जाता है। - अंगर्षि का दृष्टांत। __चंपा नगरी में अंगर्षि और रुद्रक दोनों विद्याथीं कौशिक आचार्य के पास विद्या पढ़ते थे रुद्रक स्वभाव से क्रोधी कपटी प्रमादी था. और अंगर्षि सरल शांत सर्वदा श्रममादी था. जिससे गुरु दोनों के गुणानुसार उनकी इज्जत करता था अंगार्ष की प्रशंसा सुनकर रोज रुद्रक जलता था, और रोज उसके छिद्र दूंडला था, एक दिन दोनों लकड़ी लेने को जंगल में गये,

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