Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani

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Page 13
________________ (११) परंतु रुद्रक तो रास्तमें खेलनेको लग गया, और अपना कर्तव्य भी भूल गया दूसरा लकड़ी लेकर दुपहर को उसी रास्ते आया जहां रुद्रक खेल रहा था ___रुद्रक उसको दूर से देख कर घबराया, और लकडी लाने को चला रास्ते में एक बुट्टी स्त्री को देखी जो अपने छोटे बच्चे को नदी के किनारे पर शीतल हवा में बैठा कर रोटी खिला रही थी, पास में एक लकड़ी की भारी भी पड़ी थी जिस को वो बिचारी प्रातःकाल से अटवी ( जंगल ) में जाकर बड़े परिश्रम से ले आई थी, पड़ा हुवा मुफ्त का माल देख कर रुद्रक वहां शीघ्र जाकर, और वहां किसी को न देख कर, उस बिचारी बुट्टिया को मार डाली, और उस के बच्चे को रोते हुये वहीं छोड़ लकड़ी का भारा उठा कर तेजी से चला, और दूसरे रास्ते से निकल कर गुरु के पास जाकर बोला हे गुरुजी ! आपके माननीय छात्रके कर्त्तव्य सुनो, जिसकी आप रोज प्रशंसा क. रते हो ! मैं तो प्रभात में ही बन में जाकर इतना श्रम करके लकड़ी ले आया हूं; आप का प्रिय छात्र दोपहर तक तो खेलता रहा और जब मुझे लकड़ी का बोझा लाते देखा तब वो घबराया, और तब वो अटवी (जंगल ) में जाने लगा, रास्ते में एक रंक (गरीब) वृद्ध स्त्री को मार उस की लकड़ी का बोझा उठा कर अब धीरे धीरे चला आ रहा है, और कम नसीब बुद्धिया का लड़का वहीं रो रहा है। उन की बातें हो ही रही थी कि अंगर्षि आ पहुंचा । उपाध्याय ने क्रोधित हो कर उस से कहा, हे दुष्ट ! तेरा काला मंह कर यहां से चला जा । बिना कारण ऐसा कठोर वचन गुरु के मुंह से सुन कर वो रोने लगा क्योंकि गुरु के सिवाय वहां पर उस का कोई भी रक्षक न था, वह दूर देश से पढ़ने को आया था, तो भी गुरु को दया नहीं आई, और वह अंगर्षि रोता २ चला, उस की प्रकृति सौम्य होने से उस ने किसी का दोष नहीं निकाला परन्तु गांव के बाहिर दरवाजे से थोड़ी दूर जाकर वृक्ष की छायां में बैठ कर बिचारने लगा। अहा ! चन्द्र की किरणों से अग्नि निकले ऐसे शांत गुरु के मुख से कठोर वचन निकले हैं, मेरा कुछ भी अपराध हुवा होवेगा, जिसे मैं नहीं जानता हूं; अहा ! ऐसे शांत गुरु को क्रोधी बनाने वाले मुझ को धिक्कार है । धन्य है ! ऐसे शिष्यों को कि जिन्हों ने अच्छे कर्त्तव्य से अपने गुरु को प्रसन्न किये हैं। धन्य है उन्हों को ! जो

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