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ही देवता इन्द्र बहुमान करते हैं उनका च्यवन ( गर्भ में खाना ) जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण (गोक्ष गमन) कल्याण रूप होने से पांच कल्याणक माने जाते हैं उन दिनों में गुणार्थी, तपश्वर्या कर जाप करते हैं चैत्र सुदी १३ के दिन महावीर प्रभु का जन्म होने से जंगह जगह महावीर जयंती होती है पोष वदी १० को पार्श्वनाथ प्रभु का जन्म होने से बहुत से लोग एकाशना मावीका तप करते हैं, श्रावण सुदी ५ के दिन नेमिनाथ प्रभु का जन्म Fit से लोग उपवास करते हैं, उन जिनेश्वरों के कल्याणककी तिथिऐं याद रहे इस लिये कल्याणक तिथिओं की टीप छपाकर मंदिर वगैरह में लगाते हैं वा घर में रखते हैं, जिससे ख़्याल रहता है कि अहो ! आज उन जिनेश्वर कल्याणक है ! धन्य है मेरामनुष्य जन्म ! कि मैं आज उन पवित्र पुरुष का स्मरण कर रहा हूं । ( कल्पसूत्र का हिंदी भाषान्तर पढो )
जैन में तीर्थ दो प्रकार के हैं एक स्थावर तीर्थ, और दूसरे जंगम तीर्थ. साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, धर्म के अंग होने से और उनमें रह कर तिरना होता है इसलिये उसे तीर्थं कहते हैं ऐसे ही जहां तीर्थ कर का कल्याण क हुआ हो, वा जहां पर उन्हों ने ध्यान किया हो उपदेश दिया हो वहां पर मंदिर बनाते हैं वहां जाकर भव्यात्मा अपने आत्मा को पवित्र करते हैं उससे भ्रातृप्रेम बढ़ता है तीर्थों की यात्रा में आने वाले मुनिराजों का दर्शन और धर्म व भी होता है घर से निवृति होती है पाप व्यापार छूट जाता है, इससे महाँ जा कर भव्यात्मा तिरते हैं ।
इस लिये उसे स्थावर तीर्थ कहते है. ऐसे तीर्थं लौकिक में भी हैं परंतु जैनों मैं वैराग्य दशा अधिक होने से वीतराग की जहां मूर्त्ति वा चरण हो वहाँ ही जाकर • ध्यान करने का गुण होने से उनके तीर्थ लोकोत्तर कहे जाते हैं जैसे कि अष्टापद गिरनार, संमेत शीखर शत्रुंजय सार ।
पंचे तीरथ उत्तम ठाम, सिद्ध थया तेने करूं प्रणाम ||
इसके सिवाय और भी तीर्थ महात्म्य की किताबों में उनका वर्णन है शास्त्रों में भी लिखा है कि ऐसे तीर्थो में जाने से भव्यात्माओं का दर्शन निल होता है अर्थात धर्म श्रद्धा अधिक होती है ।