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बाला ही साधु धर्म के योग्य प्राणी बताया है, पीछे गुरु महाराज उसकी यथा योग्य परीक्षा कर साधु धर्म वा श्रावकधर्म देते हैं चाहे अणुव्रत देवें वा महा व्रत देवें ।
श्रावक और साधुका संबंध.
जैन धर्म में स्याद्वाद मार्गका वर्णन है, अर्थात जितनी अपेक्षाएँ जहाँ घटे वहां उतनी घटानी चाहिये. उसे स्याद्वाद कहते हैं. इस स्याद्वाद रीतिसे श्रावकके भिन्न भिन्न गुण बताये हैं. यहां पर साधु धर्मोपदेशक है और श्रावक उस धर्म के ग्राहक ( लेने वाले ) हैं उनका पर स्पर क्या संबंध है वो बताते है
स्थानांग सूत्र में लिखा है. कि
( १ ) मात पिता समान, भाई समान, मित्र समान, शौक ( संमान - चार प्रकार के श्रावक होते हैं.
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(२) साधुओं का चारित्र निर्मल रहेगा तो वे सिद्धांत को अच्छी तरह पढें कर हमें लाभ देंगे इसलिये जैसे मात पिता रात दिन बैटे की प्रतिपालना करते हैं. उसी तरह साधुओं की रात दिन यथों चित भक्ति करें. वे मात पिता समान श्रावक हैं.
( ३ ) भाई समय समय पर भाई की चिंता करे. और उसे सहाय दे इस तरह समय मिलने पर साधु की खबर लेकर उसकी यथो चित सेवा करे वे भाई जैसे श्रावक हैं.
( ४ ) पर्ब दिन में मित्र पर स्पर मिल कर खबर पूछते हैं. ऐसे ही पर्व के दिनों में साधुओं की सेवा करें वे मित्र जैसे श्रावक हैं.
(५) सोक जैसे परस्पर छिद्रों को शोध और गुणों को छिपा कर उसको अपमान से खुश होता है वैसे ही साधुओं के गुणों को छूपा कर जरा भी भूल होने पर लोक में निंदा करे और साधु का अपमान करे वो सौक जैसा श्रावक है, यथा योग्य भक्ति कर अपनी शक्ति अनुसार से गुरु के पास धर्म सुन और आदरे वो उत्तम श्रावक है.