Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani

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Page 54
________________ (५०) वाला होने से उसे निश्चय चारित्र होता है जैसे नदी में तिरने वाला बड़ों की सहाय से तिरना सीख पीछे आप भी तैरू हो सक्ता है, इस लिये प्रथम व्यवहार सम्यक्त्व प्राप्त करने को ज्ञान पढना चाहिये । ज्ञान के दो भेद ॥ जो ज्ञान पाठशाला में पढाते हैं वो ज्ञान भी कहलाता है और अज्ञान भी कहलाताहै जो ज्ञान का उपयोग दूसरों के भले के लिये ही तो वो ज्ञान है और जो दूसरों का नुकसान करे तो वो अज्ञान है इस लिये ज्ञान पढ कर परमार्थ और परोपकार करना चाहिये। ___ कोई पैसा गौ रोटी घर वगैरह देवे तो दान हो सक्ता है अथवा मीठे हित के वचन बोले तो भी दान हो सका है किंतु ज्ञान पूर्वक जो समझ के दिया जावे तो सब से अधिक अभय दान है स्थावर स जीवों को जो सदा बचावे तो संपूर्ण अभय दान होता है उसे साधु धर्म कहते हैं ऐसे ही चारित्र, महावन, यम, संयम भी कहते हैं जो साधु न होवे अथवा उसे गुरु साधु न बनावे तो वो गृहस्थ धर्म ले सक्ता है. उसे देश विरति कहते हैं । उसमें बारह व्रत हैं। (१) जीवा सुहुमा थूला, संकप्पारंभा भवे दुविहा । सावराह निर व राहा, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥ श्रावक से उस जीव की दया पले परंतु स्थावर की दया ने पले वारवार चूला जलावे, पानी उपयोग में आवे वनस्पति खावे मट्ठी चूना के घर बनावे इस लिये पृथ्वी पानी अग्नि वायु वनस्पति को विना कारण दुःख न देवे वि. वेक से काम करे तो भी उनकी हिंसा होवे इस लिये २० हिस्सा दया हो तो त्रस का बचाव होवे स्थावर के १० हिस्से न पले। . त्रस में भी अपराधी पर दया न रहे घर में चोरी, खुन वा बदमाशी करने को कोई आने तो उसपर शस्त्र चलाना पड़े अथषा राजा को प्रजाके रक्षणार्थ युद्ध करना पड़े तो निरपराधी की दया पले जिससे सिर्फ पांच हिस्से दया के रहै।

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